बुधवार, 31 मार्च 2010

करनाल कोर्ट का एक एतिहासिक फैसला (एक विचार....)(वयंग्य),

कल करनाल कोर्ट में एक एतिहासिक फैसला सुनाया गया!खबर के लिए लिंक दे दिया गया है!पाँच अभियुक्तों को फांसी कि सजा एक साथ सुनाया जाना अपने आप में एक मिसाल है!कहाँ तो भारत में फांसी कि सजा को ही ख़त्म करने पर विचार चल रहा है और कहा  एक साथ पाँच-पाँच को फांसी कि सजा! चूँकि निर्णय माननीय कोर्ट से आया है तो उस पर कोई टिप्पणी करने का मेरा कोई इरादा नहीं है फिलहाल!

ये जाहिर सी बात है कि खाप पंचायतो के बढ़ते दबाव को कम करने के लिए ये निर्णय शुरुआत मानी जायेगी भविष्य में!

और हाँ! यहाँ ये भी काबिल-ए-तारीफ़ और गौर की बात है कि ये निर्णय एक महिला जज ने सुनाया है!वर्तमान सरकार में महिलाओं का योगदान उल्लेखनीय है!उल्लेख करने के कारण सभी अलग-अलग बता सकते है,पर उल्लेखनीय जरुर है!
अब सवाल ये उठता है कि जो सजा माननीय कोर्ट ने सुना दी है उस पर अमल कब तक हो पायेगा,हो पायेगा या नहीं भी हो पाए?
अनायास ही "सम्माननीय अजमल जी"(भई अतिथि है हमारे) का चेहरा उभर आया स्मृतिपटल पर!वो तो अपने कसाब जी भोले-भाले,नाहक ही कानूनी पचड़ो में फस गए बेचारे,थोडा ठन्डे दिमाग से काम लेते तो कब के राष्ट्रीय अतिथि सार्वजनिक रूप से घोषित हो चुके होते!
मै समझता हूँ कि उन पाँचो को तो सजा मिल जानी चाहिए,मिल भी जायेगी शायद!क्योंकि उनके पास अजमल और कसाब जैसी किस्मत नहीं है!मानवाधिकार वाले तो वैसे ही हिन्दुओ के खिलाफ हुए फैसले में मौन रहते है!उन्हें बस कुछ ख़ास वर्ग ही पीड़ित दिखाई देता है(चाहे वो हो या ना हो)!


उन पाँचो के पास तो अपने पड़ोसियों का समर्थन और सहयोग  नहीं होगा,पडोसी देश कि बात बहुत दूर है!कोई नेता टाइप के लोग भी क्यों उनके पचड़े में पड़े! यार,कोई राजनैतिक लाभ भी तो नहीं दीखता!ना कोई वोट बैंक उन पर आधारित है,ना ही कोई किसी वर्ग के मुखिया है वो!जानता ही कौन है उनको?बस इतना ही कि घर कि लड़ाई में हत्या हो गयी इनसे और फांसी कि सजा मिली है,ओह सॉरी! बुली है!जब मिलेगी तब भी थोडा हिट हो जायेंगे,तभी बोलना ज्यादा हितकर होगा!तो उनको तो सजा मिल ही जायेगी,मिल जानी भी चाहिए!और फिर है भी लड़की वाले वो तो!सब उन्ही को तो सहना पड़ता है सदा!



मै बस ये कहना चाह रहा हूँ कि जब उनको दोषी करार दिया जा चुका है और सजा घोषित हो चुकी है तो सजा मिलनी भी चाहिए!सजा तो हर उस अपराधी को मिल जानी चहिये जो सजा पाकर भी निश्चिन्त ही मजे से जी रहा है!मस्त खा-पी रहा है!कारण चाहे जो भी हो,वो तो एक तरह से न्यायालय के निर्णय  की खिल्ली सी उड़ा रहा है,लो दे लो सजा,मै तो अब भी खुश हूँ और मजे में हूँ!

वास्तविक खबर के लिए नीचे क्लिक करें,विस्तार से पढने को मिलेगा!
http://www.khaskhabar.com/murder-of-love-couple5people-hang-till-death-03201031796046291.html





अन्त में इतना ही कि खाप पंचायतो को स्वयं को देश के क़ानून से ऊपर समझने कि भूल छोडनी चाहिए!वो तो प्रशाशन को भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इस समस्या का सर्वसम्मति से कोई शान्तिपूर्ण हल निकाले!बहरहाल करनाल  में एक एतेहासिक शुरुआत हुई है,आशा करते है कि भविष्य में इस फैसले को समय समय पर याद  किये जाता रहेगा!

जय हिंद,जय श्री राम!
कुंवर जी,

सोमवार, 29 मार्च 2010

समंदर भी बह जाता होगा ये तो ना सोचा था....(कविता)

समंदर भी बह जाता होगा ये तो ना सोचा था,
नदियों ने देखा तो रो पड़ी,
पहाड़ का बिखरना कोई आम बात नहीं,
रेत के टीलों को हैरानी तो होगी ही,
आसमान को सहारा तलाशते तो ना देखा था,
हवाओं ने देखा तो घबरा गयीं!
हवा बेखबर,रेत के टीले अनजान और नदियाँ बेचारी मासूम,
वो क्या जाने समंदर भी बहना चाहता है कभी,
पहाड़ कि बिखरने कि तमन्ना बे बुनियाद नहीं,
आसमान अकेला कब तक देखे सभी को सहारे मिलते हुए!
मगर वो जानते भी है कि उनको ऐसी कोई जरुरत नहीं,
ऐसे रहना उनकी कोई मजबूरी भी नहीं,


फिर भी.....

समंदर बहना  चाह  रहा  है,
बिखरना चाहता है पहाड़,
आसमान झुक गया है सहारे की खोज में!
और!
नदियाँ व्याकुल बही जा रही है
समंदर की और
उसे समझाने!
कही वो बह ना जाए!
रेट के टीले स्तब्ध है,
नहीं पता उन्हें वो क्या करे?
पहाड़ को बिखरने से रोकने के लिए!
हवा तो घबराई सी भटक रही है,
जिधर आसमान झुकता दिखाई दिखा,
दौड़ ली,
उसे सहारा देने......
कुंवर जी,

शनिवार, 27 मार्च 2010

यह तो छोटी सी बात हैहमारे बड़े से भारत देश महान में!(कविता), (वयंग्य),

भारत देश महान में,
कपडे बहुत है,
कितने ही रंगों में
कितने ही थान में!
कपडे बहुत है,
बजाज की दुकान में,
और कहीं भी तो है,
इक गरीब के अरमान में,
उसके पास नहीं है असल में,
मगर बहुत है,
अरमानो के जहान में!
कपडे नहीं है तो पहने क्या?
मत पूछो,
बताने की हिम्मत नहीं जुबान में!
हिम्मत तो तब होगी
जब पेट भरेगा,
कुछ खाने को मिले
तो पेट भी भर जाए,
कुछ करे तो कुछ मिल भी सकता है,

लेकिन!
करे क्या?
चोरी या हेरा-फेरी!हाँ!
लूटपाट के भी जरुरी नहीं लाइसेंस,
सरकारी फरमान में!
अब सरकार तो सरकार ठहरी,
वो भी जनमत से बनी हुई,
 उसकी मर्जी
उसकी मर्जी तो हमारी मर्जी,
अब हमने जो चुनी है,
सरकार!

एक तीर
जो हम पर ही चलता है,
और तना है हमारी ही कमान में!
वैसे तो वो कहीं और भी चल सकता है,
बेरोजगारी पर,
गरीबी पर,
अव्यवस्था पर!
मगर यह तो चलता है
आम जनता पर,
चलाता कौन है?
हम ही तो!
फिर अफ़सोस कैसा ,
यह तो छोटी सी बात है
हमारे बड़े से
भारत देश महान में!
कुंवर जी,
                                                                                                                           चित्र गूगल से साभार!

मंगलवार, 23 मार्च 2010

जरुरी तो कुछ भी नहीं.......(कविता), (वयंग्य),

माना शिवाजी,महाराणा,भगत सिंह ये पुराने जमाने की बात है,
पर देख ज़रा उन के आगे तेरी क्या औकात है!


जरुरी नहीं के
 सारे के सारे
"रंग दे बसंती"
वाला सीन पैदा करें!
ये भी जरुरी नहीं
के सारे के सारे
"अ वेडनसडे" जैसा
भी कुछ करें!
जरुरी तो कुछ भी नहीं,
जो हम करते है!
डरे-सहमे से जिए
ये भी जरुरी नहीं!
नहीं जरुरी
मरना ऐसे
जैसे
गुमनाम से हम मरते है!


चलो मै तो भावुक हो गया आज,
तुम तो संभालो
अपने आप को ही सही,
आज तुम खुद को संभालोगे तो
कल देश भी संभल जाएगा,
तब लगेगा के शायद
अब किसी भी शहीद का बलिदान
व्यर्थ नहीं जाएगा!

जरुरी  नहीं के सारे के सारे
इसे पढ़ कर भूल जाए,
जरुरी नहीं के सारे के सारे
कुछ "रंग दे बसंती"
या
"अ वेडनसडे"
जैसा कुछ कर पायें!
क्योंकि हम मजबूर जो है!
जिम्मेवार है,
भले ही जिम्मेवारी समझे ना समझे!

जरुरी नहीं के सारे के सारे
शर्मा जाएँ खुद से ही
जब वो तुलना करेंगे खुदकी उनसे
जिन्होंने अपना बलिदान दिया
ये सोच कर के
"एक भगत के मरने से हर भारतवासी भगत बन जाएगा!"

जरुरी तो कुछ भी नहीं.......


हर शहीद को कोटि-कोटि नमन ..... 
कुंवर जी,





सोमवार, 22 मार्च 2010

जब ऐसा हो जाएँ!(कविता),

तेरी  बाहें हो
मेरे गले में,
और मेरी बाँहें
तुम्हारे गले में,
चल रहे हो हम यूँ ही
और चलते रहे,
चलते-चलये टकरायें
सर हमारे
कभी-भी अचानक,
तो भी हम चलते रहें!

या फिर
अटकाए बांहों में बाहें
हम-तुम,मिला कर
कंधे से कन्धा
साथ-साथ,चला किये!

या फिर चल पड़े
पकड़ हाथों में हाथ,
हिलाते
उनके साथ ज़ज्बात,
ऐसा भी नहीं तो,
राह एक पर ही,
हम दोनों कुछ दूर तक ही,
चलते रहे साथ-साथ,
तो मन हल्का हो जाएँ!
मगर तब,
जब ऐसा हो जाएँ!
कुंवर जी,

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

उनकी आस्तीन में भी सांप पलते होंगे!(वयंग्य)(कविता)

जिस तरह मिलते है हम उनसे,
उसी तरह वो भी हमसे मिलते होंगे!
जैसे हमारी आस्तीन में पले हैं,
उनकी आस्तीन में भी सांप पलते होंगे!
हमे देखते ही खिल उठता है चेहरा उनका भी,
हमारी बनावटी हंसी पर अन्दर ही अन्दर वो भी जलते होंगे!
न तो रंज है कोई न गिला-शिकवा ही हमसे,
इसी बात पर रोज़ हम उन्हें जरुर खलते होंगे!
हर बात को टाल देते है वो भी हंसी-मजाक में ही,
दिल-ओ-दिमाग में तो उनके भिकिटने ही बवंडर मचलते होंगे!
 दिलचस्पी पूरी दिखाते है वो भी हर किसी के काज में,
मौके पर क्या वो भी चतुराई से टलते होंगे!
करते है आँख मूँद कर विश्वाश उन पर भी सभी,
क्या वो भी हर किसी को हर बात में छलते होंगे!
हर बात है उनकी हम से मिलती-जुलती,
शाम-ओ-सहर दोपहर में हर पल क्या वो भी रंग बदलते होंगे?
कुंवर जी,

क्या हैडली को सिर्फ उम्र-कैद की सजा से ही "भारत" को संतुष्टि मिल जायेगी?

मै जानना चाहता हूँ क्या हैडली को सिर्फ उम्र-कैद की सजा से ही "भारत" को संतुष्टि मिल जायेगी?वो क्या है?मै समझता हूँ ये बात सभी जानते है!क्या उसने जो किया है और जो वो कर सकता था यदि पकड़ में नहीं आता तो,वो क्षमा-याचना करने से कम हो जाता है?क्या उसके जुर्म कुबूलने से वो एक अच्छा आदमी हो गया है?जबकि हम सब जानते है के उसने आत्म-समर्पण नहीं किया है बल्कि पकडे जाने पर,एक योजना के तहत ऐसा किया है!

तो इस छोटी सी पोस्ट का ये छोटा सा सवाल आपके समक्ष, मै नहीं समझता के ये भी कहना पड़ेगा उत्तर देना  पड़ेगा!एक बार ये विचार जरुर करना के वो किस-किस की मौत का जिम्मेदार है!केवल कुछ बम धमाको में भारत के एक-एक अमूल्य सपूत का या हर बम धमाको में भारत के आत्मसम्मान का?

जय भारत.....
कुंवर जी,

गुरुवार, 18 मार्च 2010

अब तो जागो...(कविता)

एक जाती,
एक थाती,
पाती एक क्यों नहीं,
सब रहे जाग,
है एक आग,
राग एक क्यों नहीं?
इष्ट एक,
अभीष्ट एक,
शीष्ट एक क्यों नहीं?
जोश एक,
रोष एक,
होश एक क्यों नहीं?
     क्यों नहीं मंथन यहीं,
                                          सही और कुछ नहीं!
                                                कुंवर जी,

ब्लॉग्गिंग के नए भगवान् oh sorry! खुदा..है जमाल भाई साहब! (हास्य ग़ज़ल)

जमाल भाई साहब,जमाल भाई साहब,
है बड़े कमाल भाई साहब!

ब्लोगवाणी  पर हर पोस्ट उनकी
कर जाती है धमाल भाई साहब!

तर्क भी कुतर्क भी,
वो देते है बेमिसाल भाई साहब!

अधूरा ज्ञान खतरा-ए जान
की है वो मिसाल भाई साहब!

ऊँची दूकान पर नहीं वो फीका पकवान
ज्ञान का है एक जंजाल भाई साहब!

उचित-अनुचित की कौन सोचे
जब हो "पाठक-गिनती" का सवाल भाई साहब!

सच-झूठ,इज्ज़त-बेईज्ज़ती का यहाँ
भला कौन करे ख्याल भाई साहब!

विचारों की दुकान खोल बैठ गए
मुझ जैसे विचारों  से कंगाल भाई भाई साहब!

हरदीप मुरख के चक्करों में क्या पड़ना
अपनी-अपनी मस्ती में रहो खुशहाल भाई साहब!

ब्लॉग्गिंग के नए भगवान्
oh sorry !खुदा..
है जमाल भाई साहब! 

किसी की भावनाओ को ठेस पहुंचाना मेरा मकसद नहीं,,,
मै सोचता हूँ के विशुद्ध मनोरंजन किया जाए!

अब कोई मुझ से ये पूछे कि मनोरंजन की चीज से मनोरंजन ना करे तो क्या करेंगे?
तो इसका जवाब तो मेरे पास है नहीं साहब!
और हाँ मुझ अज्ञानी से ये पूछ कर कुछ भी
हासिल नहीं होने वाला के जब खुदा मेहरबान हो तो कैसे "गधा भी पहलवान" हो जाता है?
कुंवर जी,

बुधवार, 17 मार्च 2010

मुझे पीने का शौंक नहीं,बस पी लेता हूँ!...

मुझे पीने का शौंक नहीं,बस पी लेता हूँ!

सोचता हूँ आज फिर कोई मार दे मुझे,
अपने हिस्से के गम सारे उधार दे मुझे,
निगाह-ए-खंज़र उपहार दे मुझे,

गौर करे ना करे पर सुने तो,
हमे ना बताये पर हमे चुने तो,
पूरे ना हो सपने सही हम बुने तो,

शोख अदाओं का हसीं सा खुमार दे मुझे,
मिले ना मिले पर मिलने का इंतज़ार दे मुझे,

इन्ही ख्यालों में बस जी लेता हूँ!
मुझे पीने का शौंक नहीं,बस पी लेता हूँ!

                                                                                                                          कुंवर जी,

मंगलवार, 16 मार्च 2010

नाम सब से अच्छा "तम्बकतुरा"!...(हास्य-वयंग्य)

एक गरीब के घर गलती से लड़का पैदा हो गया!क्षमा चाहूंगा,गरीब अधिकतर गलती ही करता है ना इसी लिए यहाँ भी 'गलती से' निकल गया!हाँ तो वो पैदा तो हो गया पर अब उसका नाम क्या रखे जी?
बड़ा ही कठिन सा प्रशन!हमारे-तुम्हारे लिए तो नहीं पर उस गरीब के लिए जरुर!

राम,कृष्ण,बलराम,विक्रम आदि रखदे तो क्षत्रिय वर्ग खा जाएगा उसे,'हमारे नाम ये रखेगा अब?"
सोहन,मोहन,बनारसी रखे तो पडोसी जीने नहीं देंगे,'हमारे ही नाम पाए थे तुझे?"
असलम,राशिद,रफ़ीक उसे अच्छे नहीं लगे,क्योंकि रखे तो जात-बिरादरी का डर!
आजकल के मोडर्न नाम उसे सूझते नहीं!

एक जमींदार आया,उसने कुछ बधाई स्वरूप कुछ अनाज उस गरीब के घर डाला और बोला इसका नाम रख दो "तम्बकतुरा"!

चलो हो गया जो नामकरण!
अब तम्बक्तुरा बड़ा हो गया,समय पर विवाह भी हो गया जैसे-कैसे!अब उसकी पत्नी थोड़ी-बहुत पढ़ी-लिखी सी आ गयी जी गलती से!अब लड़की और गरीब की तो गलती से ही पढ़ ली होगी!उसे कोंन सा राष्ट्रपति बनना है!

अब कुछ दिन तो उसने सहा अपने पतिदेव का नाम-रूपी-अपमान!आखिर कब तक!एक दिन उसके अन्दर की शिक्षित नारी तड़प उठी,बोली "ये नाम बदल लो जी,मुझे अच्छा नहीं लगता!"
तम्बकतुरा बेचारा पुश्तैनी गरीब,जमींदार जो कहें वोही सर्वोपरि!बोला,"नाम में क्या रखा है,कोई कुछ भी कह ले,हमे तो अपना पेट भरना है और सो जाना है!और ये तो वैसे भी बड़े चौधरी ने दिया है,बदल कर उनका अपमान करना मेरे बस में नहीं है!":

पर जब पेट भरी नारी जाग जाती है तो उसे समझाना सम्भवतः असंभव है!अपने पतिदेव का नाम परिवर्तन की हठ उसने ठान ली!अब तम्बकतुरा गरीब के साथ-साथ आदमी भी था!घर की सुख-शान्ति के लिए के पत्नीश्री की मान लेना ही उचित देख बोला,"तू ही रख दे कोई नाम!"

वो बोली आज शाम तक नाम ढूंढ लाऊँगी!

उसने सोचा सावित्री तो यमराज से अपने पति के प्राण तक वापस  ले आई थी मुझे तो एक नाम ही लाना है,ले कर ही दम लूँगी!ऐसा प्राण कर वो घर से निकल पड़ी!सोचा जो भी नाम सबसे अच्छा लगेगा वो ही अपने पतिदेव का नाम रखूंगी!

घर से थोड़ी दूर निकलते ही उसने देखा किसी की अर्थी जा रही है!पूछने पर पता चला के मरने वाले का नाम था "अमर"!
उसने सोचा जो मर गया वो कैसा अमर?

थोडा आगे चलने पर देखा के एक आदमी शराब के नशे धुत्त सबके साथ गाली-गलौंच कर रहा था!पता लगा के उसका नाम था "भगत"!
उसने सोचा जो सूरा का गुलाम है वो कैसा भगत?
आगे राह में उसने देखा के एक हट्टा-कट्टा आदमी बदहवास सा भागा जा रहा है!बार पीछे मुड़-मुड़ कर देखता जाता और दौड़ता जाता!पता लगा वो ना जाने किस से डर कर भाग रहा था!नाम पता लगा उसका "शेर सिंह"!
उसने सोचा ये कैसा शेर,कैसा सिंह,जो डर रहा है?

थक हार कर शाम होते-होते वो बेचारी वापस अपने घर आ गयी!अब सभी को बता कर निकली थी के आज तो कोई उत्तम नाम अपने पतिदेव का ढूढ़ लाऊँगी,सो सभी की व्याकुल दृष्टि उसी की और थी!अब पुरुषो को तो उसकी हालत से अंदाजा हो गया के जो उन्होंने सोचा था वोही हुआ है आज,सो चुप ही रहे!पर नारी तो नारी ठहरी!समझ तो वें भी गयी के क्या हुआ है,पर जो रस सुन कर आता है वो महसूस करने में कहाँ?अपने-अपने अंदाज़ में सभी ने पूछा?
अब जो उत्तर उस बेचारी ने दिया वो मै आपको बिलकुल वैसे बताता हूँ जैसे मैंने सुना था!है तो हरियाणवी पर थोडा सरल है! वो बोली.....
                              "अमर को मरदे* देख्या,अर भगत देख्या सूरा**,
                               शेर सिंह नाम जिसका वो भी डर रह्य था पूरा,
                                सुन लो मेरी जिक्र करण की लोड*** नहीं...
                                नाम सब तै अच्छा "तम्बकतुरा"!

ये आख्यान मैंने अपने गाँव में सुना था!आप तक पहुँचाने में मैंने भी कुछ मिर्च मसाला इसमें अपनी ओर से डाल दिया है!पता नहीं स्वाद बिगाड़ा है या सुधारा है मेंरे मसाले ने!अब ये तो आप ही बता सकते हो!अब तो ये आपके हवाले........
कुछ शब्दार्थ...
*=मरते हुए
**=शराबी
***=जरुरत 
 कुंवर जी,

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

फर्क तो पड़ता ही है....(कविता)

जेठ के महीने जब
थक जाती है आँखें
बादल कि राह देख-देख,
तब तक आस भी
सब्र में तब्दील हो चुकी होती है!
पर आसमान पर ही टिकी रहती है
वो थकी आँखें!
तभी दिखाई दे कोई
उमड़ती-घुमड़ती घटा,
और छा जाए,
इक पल में पूरे नभ पे,
सूरज भी नहीं होता ऐसे पलों में,
जो कुछ पल पहले ही
अकड रहा होता था!
और ठंडक उस बादल की छाँव  की
अभी ठण्डी भी ना कर पायी हो
बरसात कि आस में
वो सुलगती आँखें!
तभी एक तेज आंधी आये
और पल में
उस घटा को संग ले जाए,
और
तरसती रह जाए
फिर से
वो तरसती आँखें.....
तो...
फर्क तो पड़ता ही है....
                                                            कुंवर जी,

गुरुवार, 11 मार्च 2010

हाल चाल ठीक ठाक है.........(एक और गीत)




पता नहीं कैसे पुरानी फिल्मो में आज के हिसाब के गीत लिखे जाते थे!आज फिर एक गीत आपके समक्ष परस्तुत कर रहा हूँ!है तो काफी पुराना पर गुलज़ार साहब का लिखा,किशोर दा और मुकेश जी का गाया ये गीत आज भी एकदम ताज़ा सा महसूस होता है!
'मेरे अपने' फिल्म का ये गीत आपके लिए,,,,,
.
.
.
हाल चाल ठीक ठाक है , सब कुछ ठीक ठाक है
काम नही है वरना यहाँ आप की दूआ इस सब ठीक ठाक है

आब \-ओ \-हवा  देश  की  बहुत   साफ़  है
कायदा  है , कानून है , इनसाफ  है
अल्लाह  मियाँ  जाने  कोई  जिए  या  मरे
आदमी  को  खून  वून  सब  माफ़  है
और  क्या  कहूँ , छोटी  मोटी  चोरी
रिश्वत  खोरी  देती  है  अपना  गुज़ारा  यहाँ  
आप  की  दुआ  से  बाक़ी  ठीक  ठाक  है

गोल  मोल  रोटी  का  पहिया  चला \- 2
पीछे  पीछे  चांदी  का  रुपैया  चला  
रोटी  को  बेचारी  को  चील  ले  गयी  (ओह  तेरी )
चांदी  ले  के  मुंह  काला  कौवा  चला
और  क्या  कहूँ , मौत  का  तमाशा
चला  है  बेतहाशा ,
जीने  की  फुरसत  नहीं  है  यहाँ  
आप  की  दुआ  से  बाक़ी  ठीक  ठाक  है  ##(वैरी  गुड )##
u -tube पर देखने के लिए यहाँ  क्लिक करें.. 

 http://www.youtube.com/watch?v=NykVp7qG_Ss&feature=player_embedded 

कुंवर जी,

बुधवार, 10 मार्च 2010

नारी है अत्याचारी........(हास्य-वयंग्य)

कल ही महिला आरक्षण बिल पारित हुआ और आज मेरे पास ये सन्देश कई बार कई लोगो ने भेजा!
मुझे लगा आपको भी ये बताना चाहिए...


let,s celebrate men,s day...
बेचारा मर्द.....
अगर औरत पर हाथ उठाए तो ज़ालिम,
अगर पिट जाए तो बुजदिल,
औरत को किसी और के साथ देख कर लड़ाई करे तो 
जलता है,
चुप रहे तो बेगैरत.
घर से बहार रहे तो आवारा और
घर में रहे तो नाकारा,
बच्चो को डांटे तो  ज़ालिम,
ना डांटे तो लापरवाह,
औरत को सर्विस से रोके तो
शक्की-मिजाज़,
ना रोके तो औरत की कमाई खाने वाला,
आखिर नादाँ मर्द जाए तो जाए कहाँ...?
जनहित में जारी...
नारी है अत्याचारी!


मुझे इसके वास्तविक रचनाकार का नहीं पता!पर जिसने भी इसकी रचना की है उसने अपना पूरा अनुभव पूरी इमानदारी से उड़ेल दिया है!
कुंवर जी,

मंगलवार, 9 मार्च 2010

धर्म या जाति....!(कविता)

आज समाज धर्म या जाति के भंवर में ऐसा फंसा हुआ है कि उचित-अनुचित की सुध-बुध ही खो सी गयी है!धर्मान्तरण पर तो चर्चा खूब जोर-शोर से होती है लेकिन इस पर गौर नहीं किया जाता के ये हो ही क्यों रहा है!

यदि हम देखे तो जो हिन्दू बहुत गरीब या अनपढ़ है वो ही धर्म परिवर्तन जैसी गलतिया कर रहे है!उनमे भी अधिकतर वो हिन्दू है जिनको कुछ "विशेष हिन्दू" बड़ी घृणा की दृष्टी से देखते है!जो जैसा भी है उसको वैसा ही सम्मान तो मिलना ही चाहिए!ये तो ठीक है पर दण्ड तो अपराधी को ही देना चाहिए!

तो उस गरीब,अनपढ़ हिन्दू का यही अपराध है के वो एक हिन्दू है!

वो बेचारा क्या करेगा?जिन आँखों में  उसे अपने लिए सम्मान दिखाई देगा वो तो उन्हें ही अपना हमदर्द समझेगा,यही होना भी चाहिए!उन भोलो-भालो को नहीं पता के ये सम्मान नकली है,या ये कोई षड़यंत्र है!

मेरे एक मित्र की भावनाए जो मैंने महसूस की, उनको अपने शब्द देने की कोशिश की है!यदि शब्द भी उसी के प्रस्तुत कर दू तो "विशेष हिन्दुओ" को शर्म में डूब मरने के सिवाए कुछ रास्ता भी दिखाई ना दे! 


'तुम' कह रहे हो
टपका दो ये आंसूं,
जो आँखों में
अटक गया है!


टपक जाएगा,
पहला तो नहीं टपकेगा!


तुम कह रहे हो
मत पछताओ,
जो हो गया
सो हो गया,


पहली बार तो नहीं हुआ है!


अरे जब
है 'मै' और 'तुम'
तो
'हमारे' और 'तुम्हारे'
तो होंगे ही!

तुमने तो कह दिया!




मै कैसे कहूं...?

कैसे कहूं कि
कल तक 'हमारो' में हमारा था मै!
आज
"हमारो" में "तुम"
हो के आया हूँ,


'अपनों' में 'तुम' हो कर
अब
रोऊँ मै किसके आगे?
उनके आगे
जो हमारे कभी बताये ही नहीं गए,
या फिर
उन अपनों के आगे
जो अपने ही दिखाई नहीं दिए!

"अपनापन" कहीं गिर ना जाए
'तुम्हारो' की नज़र में
इसीलिए
नहीं टपकता
ये आँखों में अटका आंसू!


हमें जागना होगा,छोड़ना होगा ये झूठा दंभ!हर किसी में परमात्मा बताता है अपना धर्म,उनमे भी जिनको हम अपने घर में घुसने नहीं देते,अपने आसनों पर बैठने नहीं देते और तो और जो सबसे हास्यास्पद है, अपने भगवान् को भी पूजने नहीं देते!इस से पहले की कोई और क्षुब्ध,आक्रामक,असंतुष्ट धर्म जन्म ले हमे सब में परमात्मा देखना ही होगा!
कुंवर जी,

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

गीता-ज्ञान यदि दुर्योधन को मिलता तो....?

जब हम प्रत्यक्ष किसी से कुछ पूछने में असमर्थ होते है तो अप्रत्यक्ष पूछ लेना चाहिए!ऐसा मुझे कई बार महसूस हो चुका है!ऐसा ही कुछ आजकल फिर मुझे लग रहा है!एक प्रशन मेरे मन-मस्तिष्क में खूब कुलाचे भर रहा है आजकल!मेरा नहीं है,पर मुझे बेचैन कर रहा है!मेरी (जैसी-कैसी भी)आस्था पर सीधे प्रहार जो कर रहा है!मै क्षमा चाहूँगा उन सब से जो मुझे थोडा गलत समझने जा रहे है!मै स्पष्ट करना चाहुंगा के मै केवल पूछ रहा हूँ,जिस पर मै आश्वश्त नहीं हूँ वो पूछ रहा हूँ!

पिछले दिनों हमारी मित्र मंडली में "श्रीमद भागवत गीता" पर चर्चा हो चली!मैंने अभी इसे पूरा नहीं पढ़ा है सम्भवतः इसीलिए मै उनके जवाब नहीं दे पाया!
प्रशन आया कि भगवान् श्री कृष्ण केवल युद्ध चाहते थे!
उनके अपने तर्क भी थे!
उन्होंने कहा यदि वो केवल ऐसा नहीं चाहते तो सम्भवतः युद्ध ना ही होता!उन्होंने अर्जुन को केवल लड़ने के लिए प्रेरित किया!
एक प्रशन ये आया कि यदि गीता का उपदेश देना था तो दुर्योधन को देना चाहिए था!उसे अधिक आवयश्कता थी ज्ञान की!गीता-ज्ञान यदि दुर्योधन को मिलता तो....?


अर्जुन तो पहले से ही विचारवान था,दुर्योधन के मुकाबले!
यहाँ मै भी एकचित नहीं रह पाता!कई जगह मैंने भी पढ़े है हमारी धार्मिक पुस्तकों में कि "इसका जिक्र केवल जिनकी इच्छा हो केवल उन्ही में करना,जिनकी इच्छा ना हो उन्हें ये ना सुनाया जाए" टाइप के आदेश!
मै भी सोचता हूँ के जो धार्मिक है उसी कि इच्छा होगी धार्मिक बाते पढने-सुनने की!जबकि जो अभी अधार्मिक है उसकी तो ये जरुरत है!मेरे हिसाब से!उसे धर्म के बारे बता कर या पढ़ा-सुना कर ही धर्म की और चलने के लिए प्रेरित किया जा सकता है!उसकी इच्छा नहीं है,इधर आने की हमे उसे बुलाना है!पर वो पहले वाली बात .."इसका जिक्र........" हमे ऐसा करने से रोकती सी प्रतीत होती है!
श्री कृष्ण भी यही करते दिखाई पड़ते है!अर्जुन युद्ध से बचाने के लिए कह रहे है और वो उसे आत्मा-परमात्मा के बारे समझा रहे है!जबकि उसकी इच्छा नहीं थी ये सुनने की फिर भी सुनाया!

दुर्योधन अमादा था युद्ध को,पाण्डव मजबूरी में लड़ रहे थे!तो श्री कृष्ण के द्वारा दुर्योधन को समझाया जाना चाहिए था!

एक प्रशन ये आया के भगवान् ने हमे अपने मनोरंजन के लिए बनाया है जो कि वो हमे हंसा-रुला कर(खासकर रुला कर) करता है!

मै उम्मीद कर सकता हूँ कि आप मेरे जिज्ञासु मित्रो की जिज्ञासा को कुछ शांत करने में मेरी साहयता करेंगे!कृपया कर मुझे समझाए कि मै क्या कह उनकी जिज्ञासा को संतुष्ट करने का प्रयास करूँ!सिवाय स्वयं गीता पढने के!क्योंकि बस ये ही उनके बस कि बात नहीं है!कुछ श्रीमद भागवद पर इतनी टिकाए मौजूद है के उनमे ही एक बात को कई तरह से समझाया गया होगा!
प्रशन तो और भी है,आज के लिए बस ये ही!
बाकी फिर कभी!
कुंवर जी,

गुरुवार, 4 मार्च 2010

अभी मै गिरा कहाँ हूँ...(कविता)

अभी मै गिरा कहाँ हूँ,
बस गिरने वाला हूँ,,,,,,,,,,,

अभी तो ना दुत्कारो मुझे,उपेक्षित भी ना करो, 
पास आने दो मुझे और मेरे पास आते भी ना डरो,
अभी तो निर्दोष हूँ,सच्चे-झूठे दोष भी ना धरो,
अच्छा-बुरा सोच कर अब भी डरता हूँ मै,
पाप के डर से ही कई पुण्य भी तो नहीं करता हूँ मैं,
तुम तो पाक-साफ़ रह लो,अन्दर ही अन्दर रोज तो मरता हूँ मैं,
एक के दो करने के चक्कर में अभी घिरा कहाँ हूँ,

बस घिरने वाला हूँ!


अभी तो धोखा दिया कहाँ मैंने,बस खाए है,
अपनों को ही नहीं लूट पाया,बहुत दूर पराये है,
अँधेरे में हूँ,बस मै हूँ,नहीं पास कोई सायें है,
अभी तो हंसी ही है हंसी में मेरी,
सच में बेबस हो जाता हूँ बेबसी में मेरी,
दिख जाती है सूरत मुझे हर किसी में मेरी,
जो तुमने सोच लिया वो अभी किया कहाँ हैं,

बस करने वाला हूँ!

अभी मै गिरा कहाँ हूँ,
बस गिरने वाला हूँ,,,,,,,,,,,
कुंवर जी,

मंगलवार, 2 मार्च 2010

एक और गीत.....धंधे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो(नवरंग)


नवरंग फिल्म का नाम तो आपने सुना ही होगा!मेरी पसंदीदा फिल्मो में से एक ये भी है!
इसका संगीत कालजयी है!
हर एक गीत अपने आप में एक मिसाल है सर्वश्रेष्ठ लेखन-संगीत और गायकी का!
होली के आस-पास दूरदर्शन और आकाशवाणी पर इसका गीत ना आये तो होली भी झूठी सी जान पड़ती है!
लेकिन मै जो गीत आज आपके समक्ष प्रस्तुत करने जा रहा हूँ वो 'तू है नार नखरेदार..." नहीं है!
जब ये गीत देखा-सुना था तब हम स्कूल में पढ़ते थे!गीत की प्रस्तुती ही पहला कारण बनी थी इसके अच्छा लगने का!
तब नहीं पता था के इसकी एक-एक पंक्ति कभी हम पर एक दम सही बैठेगी!
पढ़िए "नवरंग" में से एक रंग...... 
 
 
कवी राजा अब  कविता  के  ना  कान  मरोड़ो, 
धंधे  की  कुछ  बात  करो  कुछ  पैसे  जोड़ो, 
 
शेर-शायरी  कवी   रजा  ना  काम  आएगी, 
कविता  की  पोथी  को  दीमक  खा  जाएगी, 
भाव  चढ़  रहे  अनाज  महँगा  हो  रहा  दिन-दिन, 
भूखे  मरोगे  रात  कटेगी  तारे  गिन-गिन; 
इसीलिए  यह  कहता  हूँ  यह  सब  छोड़ो, 
धंधे  की  कुछ  बात  करो  कुछ  पैसे  जोड़ो! 
 
अरे  छोड़ो  कलम  मत  चलो  कविता  की  चाकी, 
घर  की  रोकड़  देखो  कितने  पैसे  बाकी, 
अरे  कितना  घर  में  घी  है  कितना  गरम  मसाला, 
कितने  पापड़  मोंग्बड़ी  मिर्च  मसाला; 
कितना  तेल-नून-मिर्च  हल्दी  और  धनिया, 
कवी  रजा  चुपके  से  तुम  बन  जाओ  बनिया, 
 
अरे  पैसे  पे  रचो  काव्य  भूख  पर  गीत  बनाओ, 
अरे  गेहूं  पर हो  ग़जल  धान  के  शेर  सुनाओ, 
नून  मिर्च  पर  चोपाई  चावल  पर  हो  दोहे, 
सुगल  कोयले  पर  कविता  लिखो  तो  सोहे; 
कम  भाड़े  की   खोली  पर  लिखो  कव्वाली, 
जन  जन  करती  कहो  रुबाई  पैसे  वाली! 
 
सब्दो  का  जंजाल  बड़ा  लफड़ा  होता  है,
कवी  सम्मलेन  दोस्त  बड़ा  झगडा  होता  है, 
मुशायेरे  के  शेरो  पर  रगडा  होता, 
पैसे  वाला  शेर  बड़ा  तगड़ा  होता  है, 
इसीलिए  कहता  हूँ  ना  इससे  सर  फोड़ो, 
धंधे  की  कुछ  बात  करो  कुछ  पैसे  जोड़ो, 
धंधे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो.........
 
कुंवर जी, 



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