जेठ के महीने जब
थक जाती है आँखें
बादल कि राह देख-देख,
तब तक आस भी
सब्र में तब्दील हो चुकी होती है!
पर आसमान पर ही टिकी रहती है
वो थकी आँखें!
तभी दिखाई दे कोई
उमड़ती-घुमड़ती घटा,
और छा जाए,
इक पल में पूरे नभ पे,
सूरज भी नहीं होता ऐसे पलों में,
जो कुछ पल पहले ही
अकड रहा होता था!
और ठंडक उस बादल की छाँव की
अभी ठण्डी भी ना कर पायी हो
बरसात कि आस में
वो सुलगती आँखें!
तभी एक तेज आंधी आये
और पल में
उस घटा को संग ले जाए,
और
तरसती रह जाए
फिर से
वो तरसती आँखें.....
तो...
फर्क तो पड़ता ही है....
कुंवर जी,
bahut acchhi abhivyakti...badhayi.
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना.....!!
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंBahut Sundar rachana ..!!
जवाब देंहटाएंhttp://kavyamanjusha.blogspot.com/
जी हाँ फर्क तो पड़्ता ही है
जवाब देंहटाएंएक एक वाकये फर्क ला देते है
खूबसूरत रचना
सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ,
जवाब देंहटाएंदेर से आने के लिए माज़रत चाहती हूँ ,
उम्दा पोस्ट .
विचारों कि सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंprabhaavshali prateek,,
जवाब देंहटाएंprabhaavshali rachnaa .
जबरदस्त प्रस्तुति ....कुवंर जी
जवाब देंहटाएंAAP SABHI KE PADHAARNE KA HAARDIK DHANYAWAAD HAI JI,
जवाब देंहटाएंkunwar ji,
kya baat haijanab....
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