शुक्रवार, 12 मार्च 2010

फर्क तो पड़ता ही है....(कविता)

जेठ के महीने जब
थक जाती है आँखें
बादल कि राह देख-देख,
तब तक आस भी
सब्र में तब्दील हो चुकी होती है!
पर आसमान पर ही टिकी रहती है
वो थकी आँखें!
तभी दिखाई दे कोई
उमड़ती-घुमड़ती घटा,
और छा जाए,
इक पल में पूरे नभ पे,
सूरज भी नहीं होता ऐसे पलों में,
जो कुछ पल पहले ही
अकड रहा होता था!
और ठंडक उस बादल की छाँव  की
अभी ठण्डी भी ना कर पायी हो
बरसात कि आस में
वो सुलगती आँखें!
तभी एक तेज आंधी आये
और पल में
उस घटा को संग ले जाए,
और
तरसती रह जाए
फिर से
वो तरसती आँखें.....
तो...
फर्क तो पड़ता ही है....
                                                            कुंवर जी,

12 टिप्‍पणियां:

  1. जी हाँ फर्क तो पड़्ता ही है
    एक एक वाकये फर्क ला देते है
    खूबसूरत रचना

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  2. शुक्रिया ,
    देर से आने के लिए माज़रत चाहती हूँ ,
    उम्दा पोस्ट .

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  3. विचारों कि सुन्दर अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  4. जबरदस्त प्रस्तुति ....कुवंर जी

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  5. AAP SABHI KE PADHAARNE KA HAARDIK DHANYAWAAD HAI JI,
    kunwar ji,

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