जब तक चली तो खूब खेला
मानव प्रकृति संग
और जब
प्रकृति ने की क्रिडा
तो उपजी पीड़ा,
विश्वाश
मानव प्रकृति संग
और जब
प्रकृति ने की क्रिडा
तो उपजी पीड़ा,
विश्वाश
कही घायल पड़ा
लोगो से नजरे चुरा
कराह रहा है,
श्रद्धा
किसी पेड़ की टहनी में
अटकी हुई सी
किसी कीचड़ में दबे चीथड़े में
सिमटी हुई सी मौन है!
आस है कि
टकटकी लगाये बैठी है
उसी की और ही
जिसने
ये तांडव मचाया है!
लोगो से नजरे चुरा
कराह रहा है,
श्रद्धा
किसी पेड़ की टहनी में
अटकी हुई सी
किसी कीचड़ में दबे चीथड़े में
सिमटी हुई सी मौन है!
आस है कि
टकटकी लगाये बैठी है
उसी की और ही
जिसने
ये तांडव मचाया है!
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी