राम राम जी, कई दिनों के बाद आज कुछ लिखना चाहता हूँ!असल में मै नहीं चाहता ऐसा लिखना पर क्या करूँ,जो दिखता कलम वो ही तो लिखता है! ऐसा ही कुछ कही पढ़ा या सुना था शायद..... शुरूआती पंक्ति तो पक्का!आगे कुछ-कुछ अपने आप जुड़ता चला गया!
सब लगे है अपने ही जुगाड़ में
बाकि देश जाए भाड़ में!
अपने ही हित साधने में लगा हर कोई
समाज सेवा की आड़ में,
बाकि देश जाए भाड़ में!
ज़मीर मूर्छित पड़ा है और सब राम है
संजीवनी कौन ढूंढे पहाड़ में,
बाकि देश जाए भाड़ में!
कब मौका मिले कब काटे गला किसी का
और आपस ही के लाड़ में,
बाकि देश जाए भाड़ में!
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,