शनिवार, 30 जनवरी 2010

शाम कि सैर...(हास्य-वयंग्य)

उम्र बहुत अनुभव दे देती है!किसी के भी पास उसके अनुभव ही उसकी असली सम्पति बतायी गयी है!अपना तो ये अनुभव है के ओरो के अनुभव से ही हम सीख जाए तो बहुत बढ़िया है,नहीं तो.... अब अगली बात तो केवल अनुभव करने कि ही है....
                             इस मामले में हमारे आस-पास के बुजुर्ग हमारे लिए अनुभव के सागर है,हमे जब-तब उनसे मिलते रहना चाहिए!हर बार कुछ न कुछ ऐसा जरूर मिलेगा जिसके आधार पर हम वो करने से बच सकते है जो हम अनजाने में करने जा रहे थे!
गाँव में किसी बुजुर्ग ने एक बात बताई थी,जो मुझे बहुत सच्ची और अच्छी लगी!आज वही बात आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ....

.... दो विद्वान पुरुष शाम की  सैर पर निकल पड़े!विद्वान् इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वो दोनों कुछ देर बाद ही पूरी मानवजाति के समक्ष एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करने वाले थो जो आज कि मानव-मानसिकता पर एक-दम फिट बैठता है!
संध्या समय,सूरज दिन-भर कि थकान मिटाने के लिए विदा ले चुके थे परन्तु अँधेरा अभी अपने पैर पूरी तरह से जमा नहीं पाया था!धुंधलका सा पसरा पड़ा था!राह जो गाँव से बहार जा रही थी एक दुसरे छोटे से गाँव की ओर थोड़ी शांत थी,जबकि शहर क़ी ओर जाने वाली,पूरी तरह से व्यस्त थी!तो उन विद्वान् पुरुषो ने वो शांत राह ही चुनी उस एतिहासिक शाम कि सैर के लिए!वो दोनों मेरी तरह सोचते बहुत थे,मेरी तरह!

एक कह रहा था- "आज के लोग गलत काम करते हूए डरते ही नहीं,उन्हें मानहानि होने का भी डर नहीं है,पता नहीं कैसे उनकी आत्मा उन्हें ऐसा करने देती है...."
दूसरा केवल सोचता था,उस सोच पर कुछ करने या कहने  की भी बस सोचता ही था!वो बस उसकी हाँ में हाँ में मिलाता उसके संग चला जा रहा था!
राह थोड़ी कच्ची थी,धुल भी उस पर अच्छी थी!
तभी उनके पास से एक घोड़ा-ताँगा गुजरा!धूल का एक बादल सा वहां  बन गया,अपने देश की मिट्टी की सुगंध वातावरण में तैर गयी!

लेकिन ये क्या?

आज से पहले तो कभी इस सुगंध में उन दोनों को मीठास का अनुभव नहीं हुआ था!थोडा सा गंभीर होकर सोचा तो पाया के ये तो गुड़ क़ी सुगंध है जो "धूल में फूल" का काम करती चल रही हो!गरम-गरम गुड़ की मीठी-मीठी सुगंध ने उनके अन्तर्मन तक को मीठास से भर दिया!
दोनों ने सोचा- "अब गुड़ मिल जाता तो आज शाम की सैर सफल..."
यही सोचते-2 दोनों चले जा रहे थे,धूल का बादल,जैसे उस घोड़े-ताँगे की ऐसे लोगो से सुरक्षा करने के लिए ही उसके पीछे-2 निरन्तर चला जा रहा था!
उन्हें चलते-चलते अपने से थोडा आगे कुछ पड़ा हुआ दिखाई दिया!धूल के कारण कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था!थोडा ओर निकट आने पर लगा जैसे कोई पत्थर है,थोडा ओर निकट आने पर लगा जैसे कई पत्थर इक्कठे पड़े है! गुड कि सुगंध का असर था उनके मन में अभी भी,उस पर उनकी मंद-2 चाल !उन्हें ये सोचने का समय मिल गया के ये पक्का गुड़ ही है जो उस ताँगे से गिर गया होगा!
अभी कुछ क्षण पहले ही तो गुड़ खाने की इच्छा हो रही थी ओर प्रभु की कृपा के वो सामने है!
जैसे-2 वो ओर निकट होते जा रहे थे उनकी इच्छा ओर बलवती होती जा रही थी!
पहला कुछ ज्यादा ही सोचने लगा,

..." कैसे आज गुड़ खाया जाए जबकि वो सामने ही है,भले ही वो नीचे मिट्टी मे ही क्यों न पड़ा हो? अब उठा कर खाए तो दूसरा उपहास करेगा,अभी भले ही न करे पीठ पीछे तो करेगा ही!गाँव-समाज में बतायेगा,वहां अपमान होगा,हर कोई खिल्ली उडाएगा के ये है नीचे से उठाकर गुड़ खाने वाला!"
समस्या गम्भीर,पर मन अधीर!

मन ऐसी "चीज" बना दी है भगवान् ने यदि हमे कुछ काम नहीं करना है तो उसके न करने असंख्य कारण हमे सुझा देता है,ओर यदि करना है तो उसके करने के भी असंख्य कारण हमे तुरन्त सुझा देता है!कारण ही नहीं उसे करने के तरीके भी!
                           उसको भी सुझा दिया तरीका उसके मन ने!उसने सोचा- "गिर जाता हूँ गुड़ के ऊपर,थोडा सा भोग लगा कर तुरन्त उठ जाऊँगा ,दुसरे को भी पता नहीं चल पायेगा ओर अपना मंतव्य भी निकल जाएगा!"

संभवतः ऐसे अनुभव के ऊपर ही कहा गया है के"जिन खोजा,तिन पाइया "

उसने अपने पैर आपस में ही उलझाए,कुछ लडखडाया ओर गिर पड़ा गुड़ के ठीक बगल में!इस से पहले दूसरा उसे उठाने क़ी सोचता वो अपना लक्ष्य पा चुका था,जो कुछ भी नीचे पड़ा था उसे खा चुका था!
अब वो अत्यन्त स्फूर्ति से उठता है,
अपने वस्त्रो पर से मिट्टी  झाड़ता हुआ संतोषी लहजे में दूसरे को कहता है-"भगवान् का शुक्र है के धसने से बच गए,नीचे घोड़े क़ी लीद पड़ी थी!"
दूसरा थोड़े आश्चर्य के साथ-"अच्छा; मै तो इसे गुड़ समझ रहा था!  
ओर दोनों फिर शाम क़ी सैर पर चल पड़ते है हाल-फिलहाल पर विचार-विमर्श करते हूए!

                                       मै सोचता हूँ के आज हम सभी(कम से कम मै तो) ऐसे ही चोरी-छुपे गिर कर लीद तो खा जायेंगे पर ओरो को दिखने के लिए तुरन्त अपने कपडे भी झाड लेंगे ये कहते हुए क़ि "शुक्र है धंसे नहीं"

एक कारण ये भी है मेरा केवल सोचने-2 का,काम से बचने का भी कहा जा सकता है!जो भी हो मुझे संतोष है क़ि मै गिर कर धंसने से बचने की बजाये गिरता ही नहीं,अब गिरने के लिए भी कुछ करना पड़ेगा ओर 'करना' मुझे थोडा कम पसंद है!
कुंवर जी,

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

आज तो हँस ही लो..........

बधाई हो,आज २६ जनवरी है न इसीलिए!
और मै हमारे गाँव में शिव जी के निकलने की बधाई थोड़े ही दे रहा हूँ!आपको तो पता ही होगा खैर,मुझे थोडा देर से पता चला था!असल में आज छुट्टी थी तो थोडा और सो लिए थे,जब तक जागे परेड हो चुकी थी!वैसे भी लालकिले पर झण्डा मुझे ही तो फेहराना नहीं था जो जल्दी उठता! न कंपनी में ही जाना था,सो सोचा के थोडा और सो ले!

मै सोच रहा था के कल के लिए आपसे क्षमा याचना कर लू!कल मैंने शुरू किया था ये सोच कर कि  अपने बारे में कुछ न कुछ बता कर ही दम लूँगा! लेकिन एक बार फिर मै कुछ भी स्पष्ट करने में नाकाम रहा!

वास्तविकता यही है,मै भी अपने बारे में अभी कुछ स्पष्ट रूप से नहीं जान पाया हूँ!तो अब मेरे बारे में आप अधिक न सोचे!सोचने का कार्य तो आप बस मेरे लिए छोड़ दे!

मै ये सोच रहा था कि आपको एक लड़के का किस्सा सुना ही दूं जो मेरी तरह बहुत सोचता था!

मैंने भी सुना ही था.....
                                      ..........एक कक्षा में किसी अध्यापक को कक्षा में ही लड्डू खाने कि तलब हो आई!लड्डू थे नहीं सो बहार दुकान से मंगवाने कि सोच ली!उसने कक्षा में दृष्टि दौड़ाई तो जो लड़का सबसे शांत दिखाई दिया उसको ही 5 रुपये दे दिए लड्डू लाने के लिए!अब जो बहुत सोचता है वो स्वाभाविक ही शांत तो होता ही है!
उस लड़के ने वो 5 रुपये दुकानदार को दिए और बोला लड्डू दे दो!दुकानदार ने लड्डू तोले,पहले तराजू में 5 रखे जब देखा के ज्यादा है तो एक निकाला!ठीक थे दे दिए!वो लड़का भी ले कर चल दिया,और शुरू हो गया उसके सोचने का सिलसिला!
उसने सोचा जब दुकानदार 5 रख कर एक वापस उठा सकता है तो वो तो मै भी 4   में से एक तो उठा ही सकता हूँ,मास्टर जी देख थोड़े ही रहे है!एक उठाया और खा गया!
बीच राह में एक बड़ा नाला था,उसे कूदने लगा तो एक लड्डू गिरते-गिरते बच गया!उसने फिर सोचा,"गिर भी तो सकता था"! एक और खा गया!
जैसे ही विद्यालय में प्रवेश किया,फिर सोचा!उसने सोचा के मै इतनी मेहनत कर के लड्डू ला रहा हूँ,कम से कम एक तो मिलेगा मुझे भी!क्यों मास्टर जी का समय नष्ट किया,सोचा बता दूंगा और खा गया!
अब जो एक बचा था उसे ही अखबार में बहुत अच्छी  तरह से लपेट-सपेट  कर रख दिया मास्टर जी के सामने!मास्टर जी 5  रुपये का एक लड्डू पाकर हैरान,परेशान!
उस शांत बच्चे से बड़ी शान्ति से पूछा- "5 का एक ही?"
वो बोला- "नहीं; थे तो ज्यादा यहाँ तक एक ही पहुँच पाया!"
मास्टर जी-थोडा सा सख्त हो कर-"कैसे????"
लड़का-"जी दूकानदार ने 4 रखे फिर एक उठा लिया,रह गए तीन!"
मास्टर जी- "वो तीन कहा गए ?"
लड़का-"जी एक लड्डू नाला कूदते हूए नाले में गिर गया!रह गए दो!"
मास्टर जी थोडा सा और गंभीर होते हूए- ये तो दो भी नहीं, ये कैसे???
लड़का बड़ी ही स्वाभाविक सी मासूमियत के साथ- "मैंने सोचा मै इतनी मेहनत कर के लड्डू ला रहा हूँ,कम से कम एक तो मिलेगा मुझे भी!क्यों मास्टर जी का समय नष्ट किया,सोचा बता दूंगा और खा गया!
मास्टर जी फुल्ली आग-बबूला होते हूए- "हरामजादे! मेरा लड्डू तू कैसे खा गया??"
उस लड़के ने वो लड्डू उठाया और मुह में रक्खा और खा गया,बोला-"जी ऐसे खा गया!"
मास्टर जी देखते रहे और वो जो एक लड्डू जैसे-कैसे  भी आया था, वो भी उन्हें नसीब न हूआ!

मै सोचता हूँ कि........
मै केवल सोचता ही हूँ,करता नहीं हूँ ये भी ठीक ही है!
यदि वो लड़का मेरी तरह केवल सोचता ही,करता नहीं तो मास्टर जी को उनके सारे लड्डू मिल ही जाते!


खैर छोडो आज यही.........
एक बार फिर बधाई हो,इस बार असली वाली है,,,,,
राम-राम जी
कुंवर जी!

सोमवार, 25 जनवरी 2010

मिट्टी मेरी....(एक कविता)

किसी का भी दुःख मै नहीं बाँट सकता हूँ,
किसी की भी राहों से कांटे मै नहीं छाँट सकता हूँ,
पता नहीं कैसी मिट्टी है मेरी!

जो मुझे जैसा समझता है मै वैसा ही हूँ मै,
जो खुद को जैसा भी समझता है वैसा भी हूँ मै,
पता नहीं कैसी मिट्टी है मेरी!


ऐसे तो हाड़-मांस कि ही हूँ मै,
पर नहीं किसी के विश्वाश का हूँ मै,
पता नहीं कैसी मिट्टी है मेरी!


गीली सी मिट्टी मानो,कुछ भी घड़ लो,
कोरा कागज़,जो मर्जी लिखो और पढ़ लो,
कुछ-कुछ ऐसी मिट्टी है मेरी!


हर-दीप जल कर बुझ जाता है,
अँधेरा पहले भी था,वही बाद में भी नजर आता है,
कुछ-कुछ ऐसी मिट्टी है मेरी!


पर शायद मिट्टी भी मेरी कहाँ है?
धुल सी,अभी यहाँ,अभी न जाने कहाँ है?
कुछ-कुछ ऐसी मिट्टी है मेरी!


मिट्टी मेरी....
न जाने कैसी है,
है! पर न होने जैसी है!
कुंवर जी,

बुधवार, 20 जनवरी 2010

जारी है संघर्ष मेरा मुझ को "मै" बताने का.........

जब भी मै नहीं लिख रहा होता हूँ तो  मै ये सोचता रहता हूँ कि आज उस विषय पर लिखूंगा-आज उस विषय पर लिखूंगा !परन्तु जैसे ही मै लिखने बैठता हूँ मस्तिष्क एकदम सुन्न जैसे,विचारो के नाम पर केवल रिक्तस्थान!कुछ भी तो सूझता नहीं जिसपर मै कुछ भी लिख पाऊं ! और कभी इतने विषय के चयन करना मुश्किल के किस से शुरुआत करू!फिर जिस किसी भी विषय पर लिखना आरम्भ किया तो उसके बारे में विस्तृत जानकारी का आभाव,अंततः एक विषय जो मुझे लगा कि जिसके बारे में मै बिना किसी भ्रम और संशय के लिख सकता हूँ वो अभी तो केवल और केवल मै स्वयं ही हूँ!


यह तो सत्य है कि मेरे बारे भला कौन पढ़ेगा,किसी के पास कहा इतना समय है कि वे मेरे लिए अपने अनमोल पल नष्ट करे !

लेकिन मै थोडा स्वार्थी टाइप का मानता हूँ अपने आप को !यहाँ भी अपना स्वार्थ ढूंढ ही लिया मैंने.........................!

स्वार्थ ये कि एक तो मेरे बारे में कोई मेरे सिवा जनता ही नहीं,जो भी कुछ मै बताऊंगा वही सर्वमान्य व् सत्य होगा,क्योंकि मेरे सिवा कोई जनता ही नहीं मुझे!दूसरा ये कि कम से कम मुझे लिखने का अभ्यास तो हो ही रहा है!कोई पढ़े या न पढ़े,मै खुद ही पढ़ कर अपने अन्दर सुधार के अवसर खोजा करूँगा!कभी तो कुछ तो सुधार कि गुंजाईश दिखाई देगी,जब भी दिखाई देगी धर-दबोचूंगा!

वैसे मै इतनी शीघ्रता से 'अवसर' को पिंजरे का पंछी नहीं बनाता,सोचता हूँ कि जब तक इसकी किस्मत में यूँ ही उड़ना है,उड़ लेने दूं!बाद में तो इसे मेरे कठोर और परिश्रमी विचारो में क़ैद हो ही जाना है!असल में मुझ से अधिक तो मेरे विचार ही परिश्रमी है!यदि केवल विचारो पर ही पारिश्रमिक मिला करता तो हम भी अमीर हो सकते थे!
मै सोचता हूँ........
वैसे मै बस सोचता ही ही हूँ,'करना' मुझे थोडा कम पसंद है!'सोचने' से किसी का कैसा भी नुक्सान मै नहीं कर सकता लेकिन यदि 'करता हूँ' तो न चाहते हुए भी किसी का नुक्सान हो ही जाता है!ये एक बड़ा कारण मै मानता हूँ अपने केवल 'सोचने' का!और एक ये भी है....मैंने किसी महापुरुष का एक विचार पढ़ा था कभी कि 'मनुष्य सत्ता नहीं करता,सत्ता विचारो कि होती है'!तो मै उस से पूर्ण सहमत हूँ!अधिकतर जो भी विचार मै कही से पढता या सुनता हूँ तो उस से अधिकतर मै सहमत या असहमत ही होता हूँ,मुझे ऐसा कभी लगता ही नहीं कि ये विचार मेरी विचार-दानी में कभी आये ही नहीं या 'पहली बार सुन रहा हूँ'!.............
ज्यादा तो नहीं हो रहा हा....?
अरे मेरे लिए नहीं , सम्भवतः आपके लिए हो रहा हो!
पर ये अटल सत्य है मेरे लिए तो!

आज के लिए इतना ही,शीर्षक का रहस्य अगली बार.........
अभी राम-राम जी,,,,,,
कुंवर जी!

बुधवार, 13 जनवरी 2010

सर्वप्रथम तो सभी को हाथ जोड़ कर प्रणाम !
ब्लॉग्गिंग में मेरा ये पहला अनुभव है,मुझे नहीं पता के इसके क्या-क्या सदुपयोग और क्या-क्या दुरूपयोग हो सकते है!मै अभी तो इसका प्रयोग केवल एक आलोकपुस्तिका कि तरह ही करूँगा जिसको कोई भी पढ़ ले और मै ये चेष्टा भी सदैव करता रहूँगा के इसके द्वारा किसी भी तरह की गलत जानकारी को पोषण मिलने के अवसर न मिले.......


अभी बस यही।
जय हिंद......

लिखिए अपनी भाषा में