शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

मुझे अनुभव रेत के महलो का है.....(कुँवर जी)







मेरे शब्दकोष में कितने शब्दों के  अर्थ बदल गए,
अरमानो के सूरज कितने चढ़ शिखर पर ढल गए,
फौलादी इरादे वक़्त की तपन से मोम के जैसे पिघल गये,
सपनो तक जाने वाले रस्ते भौर होते ही मुझको छल गये,
इसी लिए तो आजकल बाते कम किया करता हूँ मै,
जिह्वा दब जाती है शब्दों के बोझ तले तो दो पल को सोचा करता हूँ  मै,

पहले हर हरकत एक जूनून हो जाती थी,
करना है तो बस करना है ऐसी धुन हो जाती थी,
क्या फ़िक्र थी कि ओरो की नजर ये बाते गुण या अवगुण हो जाती थी,
गुम था भविष्य,वर्तमान के लिए तो ये ही शगुन हो जाती थी,
आज शगुन को भी दो घडी टटोला करता हूँ मै,
तुमको लगा तो ठीक लगा के बाते करते सोचा करता हूँ  मै,


मुझे अनुभव रेत के महलो का है सो डरता हूँ हर आहट  से,
कितनी चतुराई क्यों न दिखाऊ हार जाता हूँ इस समय के  इक पल नटखट से,
फिर वो खड़ा मुस्कुराता है बेफिक्र और बेखबर हो मेरी हर झल्लाहट से,
सब भूलने का हौसला भी यूँ तो देता,उलझा कर तभी नयी  खटपट में,
बस यही से फिर जीने का दम भर जाता हूँ मै!

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,



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