जिनको हमने अपना नेता बनाया
वो ही दुश्मन हुए हमारे,
हम उनको और
वो कुर्सी को पूजते रहे,
अब उनकी तिजोरिया है
कि भरती ही जा रही है,
और हम वैसे ही पहले की तरह
दो वक़्त की रोटी को ही जूझते रहे!
जूझते है हम
जिन्दंगी से जिन्दगी भर
और जुझारू वो है
बस हम तो
इस पहेली को ही
बूझते रहे!
जय हिन्द,जय श्रीराम
कुंवर जी,
मंगलवार, 30 नवंबर 2010
रविवार, 28 नवंबर 2010
मेरी पहली कविता .....मै भी चाहूँ तू भी चाहे!...(कुंवर जी)
कभी-कभी जीवन में ऐसे पल आते है जिनमे हम कुछ भी नहीं कर पाते,और ये कुछ ना कर पाना ही बहुत कुछ कर जाता है!डिप्लोमा करते समय 3 वर्ष छात्रावास में व्यतीत किये थे!पहला अवसर था जब माँ के आँचल के तले से निकल कर कहीं बहार रहे थे!
तब पहला अवसर था जब किसी से दिल से जिदाव महसूस करने लगे थे!उसी दौरान एक मित्र जो काफी करीब हो गया दिल के, के साथ किसी बात पर असमंजस के साथ बोल-चाल बंद हो गयी!अब प्रत्यक्ष बोल-चाल तो बंद थी पर हम दोनों ही हमेशा ही साथ भी रहते थे और पास भी रहते थे,पर बातें नहीं होती थी!समझते तो थे दोनों एक-दुसरे को पर जो बात हो चुकी थी उसके कारण दोनों में से कोई भी बोलने की शुरुआत नहीं कर पा रहा था!वो समय भी बहुत ही स्मरणीय व्यतीत हुआ!इसी समय मेरे द्वारा पहली कविता लिखी गयी!मेरी पहली कविता आज आपके समक्ष है!
आप भी महसूस करे कि तक क्या-क्या और कैसे-कैसे गुजर रही थी हम पर......
कुछ ना कह के सब कुछ कहना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!
साथ रहना साथ पढना,
साथ खाना,साथ खेलना,
पर अनजानो की तरह ही साथ जीना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!
ना बोलूं ना तू पुकारे,
तू मुझे बस देख जरा रे,
इस बात को कोई ना समझा रे,
इस दोस्ती को हम कैसे नकारे,
पास रह कर भी चुप रहना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!
ये दोस्ती भी क्या-क्या रंग दिखाती,
पहले तो शीशे और पत्थर को पास बुलाती,
पत्थर को करती बदनाम,शीशे को रुलाती,
रो-रो कर अकेला महफ़िल में हँसना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!
पत्थर की फितरत को तो खुदा ने ऐसा ही बनाया,
जिसको,जैसे भी मिला उसी को रुलाया,
यूँ ही पत्थर और शीशा बन के रहना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,
तब पहला अवसर था जब किसी से दिल से जिदाव महसूस करने लगे थे!उसी दौरान एक मित्र जो काफी करीब हो गया दिल के, के साथ किसी बात पर असमंजस के साथ बोल-चाल बंद हो गयी!अब प्रत्यक्ष बोल-चाल तो बंद थी पर हम दोनों ही हमेशा ही साथ भी रहते थे और पास भी रहते थे,पर बातें नहीं होती थी!समझते तो थे दोनों एक-दुसरे को पर जो बात हो चुकी थी उसके कारण दोनों में से कोई भी बोलने की शुरुआत नहीं कर पा रहा था!वो समय भी बहुत ही स्मरणीय व्यतीत हुआ!इसी समय मेरे द्वारा पहली कविता लिखी गयी!मेरी पहली कविता आज आपके समक्ष है!
आप भी महसूस करे कि तक क्या-क्या और कैसे-कैसे गुजर रही थी हम पर......
कुछ ना कह के सब कुछ कहना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!
साथ रहना साथ पढना,
साथ खाना,साथ खेलना,
पर अनजानो की तरह ही साथ जीना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!
ना बोलूं ना तू पुकारे,
तू मुझे बस देख जरा रे,
इस बात को कोई ना समझा रे,
इस दोस्ती को हम कैसे नकारे,
पास रह कर भी चुप रहना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!
ये दोस्ती भी क्या-क्या रंग दिखाती,
पहले तो शीशे और पत्थर को पास बुलाती,
पत्थर को करती बदनाम,शीशे को रुलाती,
रो-रो कर अकेला महफ़िल में हँसना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!
पत्थर की फितरत को तो खुदा ने ऐसा ही बनाया,
जिसको,जैसे भी मिला उसी को रुलाया,
यूँ ही पत्थर और शीशा बन के रहना,
मै भी चाहूँ तू भी चाहे!
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,
शनिवार, 27 नवंबर 2010
किस रंज के सायें में उल्लास है!
किस रंज के सायें में उल्लास है!
कर के मंथन कोई खुद ही,
कालकूट पीने का सा भास है!
दिल का दर्द यही था बस,
या उसे छिपाने का ही ये प्रयास है!
बात छोटी हो या बड़ी,
भला क्यों ये अकेलेपन का एहसास है!
जय हिन्द,जय श्री राम,
कुंवर जी,
बुधवार, 24 नवंबर 2010
खुशियाँ लौट आती है,.....(कुंवर जी)
पता है,
खुशियाँ लौट आती है,
हमें थोडा सा तडपाती है,
थोडा तरसाती है,
पर हमारे बिना रह भी तो नहीं पाती है!
तो वापस लौट आती है!
फितरत नहीं है ना उनकी कहीं रुक जाना एक जगह ,
हर किसी से मिलने की खातिर,
वो हमसे दूर चली जाती है!
पर वो रूठती थोड़े ही है हमसे,
थोड़ी अपनी याद दिलाती है,
थोडा सा हमारा मज़ाक उडाती है,
और
हम पर हंसती हुई फिर लौट आती है!
ज़िन्दगी जो रास्ता है तो मोड़ तो आयेंगे ही,
जो खेल तो जीत-हार सही,खुशियाँ भी हमें चलाती है!
थोड़ी सी खेलती हमारे साथ,
कभी जिताती कभी हराती है,
हर मोड़ के पार बुलाती है.
थोड़ी देर में ही सही
पर खुशियाँ लौट आती है!
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,
सोमवार, 22 नवंबर 2010
`अब आंसुओ में कोई रंग आता ही नहीं!..........(Kunwar ji)..
पिछले कुछ दिन या पिछला एक-दो महीना ब्लॉग से दूर सा ही रहा,कल तक तो इतना अफ़सोस नहीं हो रहा था पर कल रोहतक में जब मै अपने परिवार से पहली बार रूबरू हुआ तो लगा जैसे ये समय कैसे बर्बाद कर दिया मैंने....
लगा जैसे लड़की अपने ससुराल से मैके में आई हो पता नहीं कितने दिनों के बाद....
लेकिन वहा जाने से मन कि उत्कंठा को तो बल मिल गया पर समय का सहारा उन्हें अब भी नहीं मिल पा रहा है!उसी के अभाव में आज बस ये पंक्तियाँ ही आपके लिए....और चेष्टा रहेगी कि निरन्तर अपने परिवार का प्यार मै पाता रहूँ...
अपने जीवन के सारे रंग
उड़ेल दिए मैंने शब्दों के चित्र बनाने में...
अब आंसुओ में कोई रंग आता ही नहीं!
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,
शनिवार, 20 नवंबर 2010
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