आजकल
अमित भाई साहब के लेखो पर गरमागरम बहस सी चली हुई है!उन्ही की एक पोस्ट पर टिप्पणी लिखने लगा तो ये लिखा गया...... उन्होंने कहा...
".....लेकिन विकारों को आजादी का नाम देकर जिस तरह से अपनाये जाने की घिनोनी भेडचाल मची उससे सारा ढांचा ही भरभरा रहा है...."
तो इस पर मेरे विचार कुछ यूँ थे....
इस बात से तो कोई भी असहमत नहीं होगा!असल बहस का मुद्दा भी यही होना चाहिए!क्यों हम विकारों को आज़ादी का नाम देने पर तुले हुए है!
श्रेष्ठ कौन है? इसका उत्तर हम किस से ले रहे है और किसे दे रहे है?भगवान् श्री ने अर्धनारीश्वर का रूप सम्भवतः इसी असमंजस के नाश के लिए ही धरा होगा,पर हम जब भगवान् के इशारों को भी अनदेखा कर रहे है तो भला किसी ओर के बताने से तो क्या समझेंगे!
हमारी ऐसी कौन सी मज़बूरी है जो आज़ादी सिर्फ विकारों को ही मानते जा रहे है!क्या सच में कोई पीड़ित वर्ग है जो आज़ाद हो ही जाना चाहिए,या फिर यह कोई मानसिक विकृता भर है!मुझे लगता है हमें ऐसे विकारों से आज़ादी की जरुरत है!
हम ब्लॉग लिख-पढ़ रहे है तो स्वभावतः ही बुद्धिजीवी तो होने ही चाहिए.....और बुद्धिजीवियों में असहमति हो जाए किसी बात पर तो इस से भी सकारात्मक परिणाम ही आने चाहिए!एक सार्थक,निष्पक्ष और निर्णायक बहस के रूप में!लेकिन इसका अर्थ ये नहीं की यदि आपने मेरी बात नहीं मानी तो मै आपके प्रति कटुता पाल लूँ,और एक निरर्थक बहस को जन्म दे दूँ!
हमें कम से कम अपने प्रति जिम्मेवार तो होना ही चाहिए!और मेरे हिसाब से जो अपनी जिम्मेवारी को इमानदारी से निभा रहा है वो ही श्रेष्ठ है अब चाहे वो पुरुष है या नारी,ये महत्त्व नहीं रखता!इसे भी मुझे ऐसा कहना चाहिए कि "अपनी जगह" वो श्रेष्ठ है!
फिर से मुद्दे पर आते है....
क्या हमारी वर्तमान शिक्षा हमें ये सोचने पर विवश कर रही कि जो परंपरा या संस्कृति हमारी पिछली पीढ़ी ने निभायी वो एक ग़ुलामी और दकियानूसी के सिवाय कुछ नहीं...?
क्या वो संस्कृति या परम्परा असल में ही वैसी ही है जैसा कि नयी पौध के कुछ पौधे उसे समझ रहे है?यदि नहीं तो क्यों उसने उन्हें अपने में नहीं ढाला?
क्या हम खुद इतने संस्कारित नहीं रहे है कि आने वाली पीढ़ी तक उन संस्कारों को पहुंचा सके?
जहाँ तक मै अपनी बात करूँ तो स्थिति ये है कि वैसे तो मै उन संस्कारों को,परम्पराओं को अपने मन में सहेजे हुए हों,और दैनिक जीवन में उनका सहारा भी लेता रहता हूँ!पर कई बार मन में आ जाता है कि थोडा सा इन के बिना भी आचरण हो जाए तो कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा और एक-आध बार मै ऐसा कर भी डालता हूँ!तो क्या ये एक-आध बार करने कि प्रवृत्ति ही बड़ा कारण बन सकती है भविष्य में.....?
अब मै अपने माता-पिता और घर की बात करूँ तो वो एक पुरानी सोच वाला परिवार ही है!उन्हें मेरा अथवा मेरे अन्य भाइयो का शाम होते ही घर में होना पसंद है!हालांकि मै कई बार सोचता हूँ कि हमारी वजह से कोई भी,कैसा भी उल्हाना अब तक नहीं आया सो हमें थोड़ी बहुत छूट मिलनी चाहिए पर अन्त में उनकी बात ही ठीक लगती है...जब किसी पर अकारण ही बुराई आती दिखती है तो....!इस पर भी हमारी जितनी बहने है उनमे से जिसने भी पढने की इच्छा जताई है उन्होंने स्नातक तक पढ़ाई की ही है,उस से ऊपर भी पढ़ी है,तो यहाँ कोई बंधन भी दिखाई नहीं देता!
अब मैंने अपनी बात आपके समक्ष रखी...मै आशा करता हूँ कि आप भी एक बार अपना आंकलन इस हिसाब से जरूर करेंगे,यदि योग्य समझे तो उस आत्म-मंथन से हमें भी अवगत कराये....!
आप सभी शुभकामाए स्वीकार करे...
जय हिन्द.जय श्री राम,
कुंवर जी,
सादर वन्दे !
जवाब देंहटाएंआपने बिल्कुल सही लिखा है | बहस इस बात की नहीं होनी चाहिए की बड़ा कौन है! बहस इस बात की होनी चाहिए की हम कौन हैं और हमारे कृत्य क्या हैं हमारा अपना आचरण ही हमारे विचारों का दर्पण होना चाहिए |
रत्नेश त्रिपाठी
@ कुछ ख़ास फर्क नहीं पड़ेगा और एक-आध बार मै ऐसा कर भी डालता हूँ!तो क्या ये एक-आध बार करने कि प्रवृत्ति ही बड़ा कारण बन सकती है भविष्य में.....?
जवाब देंहटाएंबस यही कारण है सांस्कृतिक विचलन का. क्या फर्क पड़ता है करते करते ही हम यहाँ तक आ पहुंचे है की हमारी परम्पराएँ ही हमें उकताहट देने लगीं है .
मेरे एक मित्र है जो जापान के है. डेल्ही युनिवेर्सिटी से उन्होंने हिंदी में M.A. किया है, और अब जयपुर में एक कंपनी में जापान की कंपनी की तरफ से क्वालिटी कंट्रोलर का काम देख रहे है. वे भारत में आये सांस्कृतिक विचलन को अपने देश से तुलना करते हुए बतलातें है तो सिर शर्म से झुक जाता है. उनका एक ही बात पर जोर रहता है की क्यों आप सब तथाकथित उन्नति की मरीचिका के पीछे अपने देश की संस्कृति का सत्यानाश कर रहे है, हमारे जापान को देखिये टेक्नालोजी के मामले में इसका कोई मुकाबला नहीं है. लेकिन फिर भी हमारे जीवन में हमने इसे अंधाधुंध तरीके से नहीं अपनाया है...... बातें काफी है समय कम............ एक जापानी बंधु की पीड़ा भारत के लिए में सब कुछ स्पस्थ करने की कोशिश करूँगा..
sabsey pehlae ham sab apnae desh kae kanun aur samvidhan ko padhey aur usmae diyae gaye niyamo kaa palan karey taaki desh kaa kanun sabkae liyae ek ho
जवाब देंहटाएंjapan mae coca cola koi japani nahin peeta
japan mae english mae do japani aapas mae baat nahin kartey anytha jurmana hotaa haen
aesae desh vyapak sudhar ki jarurat haen
aur sabsey jarurii haen sanik ki tarah rehna , har bachcey ko saenik ki tarah shikshit karna
ab hindi bloging mae hi daekhiyae kitnae log haen jo sarkari karmachari haen aur us samy mae bloging kartey haen yaa office kae connection kaa istmaal kartey haen kyaa yae sahii haen
naetiktaa haemsha samajik hotee haen vyaktigat nahin vyaktigat banaaiyae sab khud theek hoga
बहुत खूब!
जवाब देंहटाएं"क्या हमारी वर्तमान शिक्षा हमें ये सोचने पर विवश कर रही कि जो परंपरा या संस्कृति हमारी पिछली पीढ़ी ने निभायी वो एक ग़ुलामी और दकियानूसी के सिवाय कुछ नहीं...?
क्या वो संस्कृति या परम्परा असल में ही वैसी ही है जैसा कि नयी पौध के कुछ पौधे उसे समझ रहे है?यदि नहीं तो क्यों उसने उन्हें अपने में नहीं ढाला?
क्या हम खुद इतने संस्कारित नहीं रहे है कि आने वाली पीढ़ी तक उन संस्कारों को पहुंचा सके?"
@शाहनवाज भाई -आपका स्वागत है....हमें थोडा सा इन प्रश्नों के हल पर भी प्रकाश डालना चाहिए...
जवाब देंहटाएं@रचना जी- आपका स्वागत है जी.आप पहली बार यहाँ पधारी है.आभार!आपने सही बात कही जी,हमें अपने देश के संविधान का सम्मान करना चाहिए!आपने आगे जो भी कहा है उस पर व्यापक चर्चा होनी चाहिए....सो उस पर बाद में चर्चा करते है....आप अपने अमूल्य विचारों से हमें यूँ ही मार्गदर्शन करती रहे.....
कुंवर जी,
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जवाब देंहटाएं@अमित भाई साहब-आपने बिलकुल सही कहा...पर इतना कहने से ही काम नहीं चलने वाला.....आप समझ गए होंगे...इसके लिए हमें एक ऐसी पौध तैयार करनी होगी जिसके फूलो में संस्कृति की महक हो और ये "एक-आध" बार की बुराई से बचने की परिपक्वता भी हो....
जवाब देंहटाएं@रत्नेश जी-सादर वन्दे...उत्साह-वर्धन के लिए धन्यवाद....जो भी ये गलत हो रहा है,उसके विरुद्ध हम सब को एक होना ही पड़ेगा....आपने सही कहा हमें अपना आत्म-विश्लेषण करना ही चाहिए...तभी हम किसी और के लिए अच्छे उदाहरण बन सकते है....नहीं तो बुरे उदाहरण तो हम है ही.....क्यों जी...?
कुंवर जी,
आप जैसा सोचने समझने वालों का स्वागत है।
जवाब देंहटाएंhttp://rajey.blogspot.com/
@Rajey Sha जी- आपका स्वागत है जी,इतने सम्मान के लिए आभार है जी...
जवाब देंहटाएंकुंवर जी,
कुंवरजी नमस्कार,
जवाब देंहटाएंमैं आपके विचारों से सहमत हूँ. आपने इस विषय पर गहन मंथन किया और आपने उत्तम विचारों से विषय को और स्पष्ट किया. धन्यवाद.
मैकाले के सपनों को चकनाचूर करने के लिए सेकुलर गिरोह को ठिकाने लगान जरूरी है।
जवाब देंहटाएंआपकी हर बात से सहमत
इस बार तो कमाल कर दिया हरदीप . हर बात सत्य हैं और मूल भाव बहुत ही प्रासंगिक हैं कि आजादी के नाम पर जो मानसिक विकृतिया समाज में आ रही हैं वो सही नहीं हो रहा हैं . माईड ब्लोइंग पोस्ट .
जवाब देंहटाएं--
!! श्री हरि : !!
बापूजी की कृपा आप पर सदा बनी रहे
Email:virender.zte@gmail.com
Blog:saralkumar.blogspot.com
बहुत अच्छी और सार्थक पोस्ट...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकुँवर जी, ये किसी प्रकार की मजबूरी नहीं वरन् ह्रदय और मस्तिष्क में अपनी संस्कृ्ति, अपनी परम्पराओं के सजीव एवं महत्वपूर्ण तत्वों की जागृ्त चेतना का ह्रास ही मन के इस भ्रम का एकमात्र कारण है.....ऎसी चेतना जो आवश्यक रूप में अच्छाई-बुराई के विवेक से सहचरित होती है.
जवाब देंहटाएंसाधुवाद इस बेहतरीन पोस्ट के लिए....परिचर्चा हेतु समय समय पर इस प्रकार के मुद्दे उठाए जाते रहने चाहिए..
जय भीम
जवाब देंहटाएंजय भीम
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी और सार्थक पोस्ट
जवाब देंहटाएंआप सभी ने इन भावो को सम्मान दिया उसके लिए आभार....
जवाब देंहटाएंकुंवर जी,