सोमवार, 21 जून 2010

रात में सूरज को तरसता हूँ,दिन में धुप से तड़पता हूँ!

गत मई मास की हिन्दी युग्म प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का मुझे भी अवसर मिला!इसमें मेरी निम्न कविता त्रितय स्थान तक के सफ़र को पूरा कर के आई है!वैसे तो हिन्दी युग्म ने इसे प्रकाशित कर दिया था,पर मुझे लगा कि मुझे भी इसे प्रकाशित कर ही देना चाहिए सो हाज़िर हूँ आपके समक्ष.....

जब ये लिखी गयी थी तो मन अजीब सी स्थिति में था जीवन यात्रा और परमात्मा के प्रति!जो कुछ मन में था अनसुलझा सा....वो कहा नहीं जा रहा था और अचानक जो जैसे कहा गया वो यही था...... 


रात में सूरज को तरसता हूँ,
दिन में धुप से तड़पता हूँ!
आखिर क्या होगा मेरा.....?
मै हूँ कहा इस यात्रा में....?
सोचता हूँ तो पाया




मुझे
ना मंजिल का पता है
ना पहचान है,
ना रास्ते में हूँ
ना सराय में,
मंजिल भी सोचती होगी
ये भी
अजीब नादान है!


खजूर की  छाँव देख भी
ललचा जाता हूँ,
जबकि जानता हूँ मै
थोडा आगे ही तो
पीपल की घनी छाँव भी है!


राह छोड़
पग-डंडियों  
पर भटक जाता हूँ,
जबकि मै
देख चुका पहले भी
कि
इनका भी तो 
ये राह ही
पड़ाव है!


ऐसा लगता है
जैसे नीन्द में हूँ,
अभी मै
सो रहा हूँ,
आँख भी खुलती है कई बार
खुली भी है,
अँधेरा देख
पता ही नहीं लगता कि
भौर है या रात
और मै फिर सो जाता हूँ!


मै सोचता हूँ
इस बार
वो मुझे बतायेगा नहीं
जगायेगा!
सही राह पर नहीं चलाएगा
बल्कि
अपनी गोदी में उठाएगा,
झूठी हंसी नहीं
सच्चे आंसू रुलाएगा.....


लेकिन क्या मै सोचता रह जाऊँगा....?



















जय हिन्द.जय श्रीराम,
कुंवर जी,

13 टिप्‍पणियां:

  1. खजूर की छाँव देख भी
    ललचा जाता हूँ,
    जबकि जानता हूँ मै
    थोडा आगे ही तो
    पीपल की घनी छाँव भी है!

    बिलकुल सटीक चित्रण किया है आपने कुंवरजी जीव की मनोदशा का. जीव का उद्देश्य पीपल की घनी छांव सरीखे उस परम सत्य की प्राप्ति है, लेकिन खजूर की छांव सरीखे संसार के विषय उपभोग को ही अपना आश्रय मन बैठते है हम.
    अद्भुत अनुपम है यह रचना.

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  2. @माधव जी-धन्यवाद है जी.

    @अमित भाई साहब-आप तो समझते है इन बातो को...पता नहीं क्यों मन घूम-फिर कर यही,ऐसी बातो में ही अटक जाता है...

    कुंवर जी,

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  3. बेहद प्रशसनीय रचना…………………माया बद्ध जीव और ब्रह्म से मिलने की उत्सुकता को बहुत ही सुन्दरता से शब्दों मे ढाला है।

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  4. बहुत ही प्रभावशाली, भावपूर्ण प्रस्तुति...
    बेहतरीन प्रविष्ठी के लिए आपका आभार...

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही मनभावन शब्दों का प्रयोग करके आपने अपने मनोभाव का चित्रण किया है. बहुत खूब!


    मुझे
    ना मंजिल का पता है
    ना पहचान है,
    ना रास्ते में हूँ
    ना सराय में,
    मंजिल भी सोचती होगी
    ये भी
    अजीब नादान है

    जवाब देंहटाएं
  6. @शाहनवाज भाई,
    @अदा जी,
    @वंदना जी--आप सब यहाँ पधारे ओर भावो को समझा,इसके लिए मै आपका आभारी हूँ जी....

    कुंवर जी,

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  7. खोब्ब्सुरत अभिव्यक्ति....मन के द्वंद्व को बताती हुई

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  8. रचना है भी सम्मान के योग्य.. बधाई भाई..

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  9. @दीपक भाई,@संगीता जी-आपका धन्यवाद है जी,

    @आदरणीय निर्मला कपिला जी-आप को वापस अपने ब्लॉग पर देख कर मुझ्र बहुत ख़ुशी हो रही है!आपने ही सबसे पहले मेरा हौसला बढ़ाया था पर बीच पता नहीं क्यों आप मुझे भूल ही गयी थी.....आपका स्वागत है जी एक बार फिर..

    कुंवर जी,

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  10. हरदीप जी,

    ईश्वर से सटिक अपेक्षा,

    मै सोचता हूँ
    इस बार
    वो मुझे बतायेगा नहीं
    जगायेगा!
    सही राह पर नहीं चलाएगा
    बल्कि
    अपनी गोदी में उठाएगा,
    झूठी हंसी नहीं
    सच्चे आंसू रुलाएगा.....

    बेहतरीन!!!

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  11. कुंवर जी,
    नमस्ते.
    आपकी रचनाओं में भावों का एक ठहराव, एक सुकून, और एक आध्यात्मिक शान्ति अनुभूत होती है. मुझे लगता है मैं एक लम्बे सफ़र पर निकल पड़ा हूँ और दोनों ओर काफी लम्बे-लम्बे वृक्ष खड़े हैं और मैं विचारों में खोया चला जा रहा हूँ. किन्तु इस यात्रा का अंत शीघ्र हो जाता है जो एक अधूरेपन के साथ छूटकर पीड़ादायी हो जाता है.
    मित्र, काफी उलझनों में रहते हो क्या? आपकी अभिव्यक्ति में अजीब-सा सन्नाटा छाया रहता है. लेकिन गरमागरम बहस में कूदकर कमाल के बौद्धिक जौहर भी दिखाते हो. --- कमाल है कुंवर जी.

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