शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

अब इतनी जिम्मेवारी तो हमारी बनती ही है कि हम सजग रहे!एक विचार....

क्या आप एक सामजिक आदमी और धार्मिक आदमी में फर्क महसूस करते है!मतलब धर्म और समाज कितने जुड़ा है एक-दुसरे से!क्या एक सामजिक आदमी धार्मिक हो सकता है या एक धार्मिक आदमी सामाजिक नहीं हो सकता!कई बार जो बाते समाज के हिसाब से हितकर होती है धर्म उसे मान्यता नहीं देता!कई बार समाज ही धर्म की बातो के खिलाफ दिखाई देता है!हालांकि मै अभी "धर्म" को ही नहीं समझ पाया हूँ अभी,शायद तभी ऐसा कहने की गलती कर रह हूँ!और अज्ञानी कहाँ नहीं हो सकते!किन्ही विषयों में कोई अज्ञानी है,किन्ही में कोई!


मै यदि कुछ बोल रहा हूँ तो वो मेरी जिम्मेवारी है कि मै सिर्फ वो ही बोलू जो मेरी जानकारी,अनुभव और बुद्धि से मेल खा रहा हो!इसमें यदि मेरी बुद्धि किसी और के हितो के बारे में भी उतनी ही सजग है जितनी कि मेरे खुद के हितो के बारे में तो शायद मै जो बोलूँगा वो सभी को अच्छा भी लगेगा और सभी के लिए हितकर भी होगा,अब चाहे मेरी जानाकरी और अनुभव मुझे कुछ भी कह रहे हो!


हर कोई ये तालमेल सदैव बना के रखे,क्या ये सभी के लिए सम्भव है!कभी-कभी बुद्धि भी विचलित हो जाती है,कभी जानकारी और कभी अनुभव के चक्करों में पड़ जाती है!कई बार हम वो नहीं बोल पाते जो हम वास्तव में कहना चाहते है,बल्की वो ही बोल जाते है जो दूसरा हम से कहलवाना चाह रहा है!


अब इतनी जिम्मेवारी तो हमारी बनती ही है कि हम सजग रहे!


ये बाते अमित  भाई  की पोस्ट पर दी गयी टिपण्णी है!कुछ अच्छा पढेंगे तो अच्छा लिखने की भी प्रेरणा मिलती ही है!क्यों जी......


जय हिंद जय श्रीराम,
कुंवर जी,

2 टिप्‍पणियां:

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