सोमवार, 7 जून 2010

अब तो बस करो...


सुन लो ये मौन-क्रंदन,
उसका भी है
कुछ कहने का मन!

अभी चल रही थी
तैयारी उसके आने की,
अभी विचारो में तुम्हारे
पनप रहा है उसका दमन,

तब नहीं सोचा था
अब सोच रहे हो...
तब के अवसर को समस्या जान,
अब हल खोज रहे हो!


उजाड़ रहे हो
स्वयं तैयार किया हुआ चमन!


और तुमने कर लिया अपने मन का,
जब भी किया था,
अब भी कर लिया अपने मन का,
तुम पर शायद कोई असर नहीं पड़ा
इस दमन का,

निष्फल रहा तुम पर प्रहार
उस मौन क्रंदन का...

देख नहीं पाये तुम वो आंसू
जो बहा नहीं,
सुन नहीं पाये वो विलाप
जो किसी ने खुल कर कहा नहीं...

वह जो आया भी नहीं था..
वह भी सह गया..
अब तो बस करो...
मानव से कह गया...


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

26 टिप्‍पणियां:

  1. श्री कुंवरजी,

    ब्लॉग्स की दुनिया में,आपके गर्मजोशी वाले स्वागत का आभार प्रस्तुत है।

    यह कविता सफल है,चित पर चोट करती है।
    अंतिम चित्र थोड़ा वीभत्स है,यदि आवश्यक न हो तो .......

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  2. @सुनील जी,@संजय जी,@सुज्ञ जी- आपका स्वागत है जी,

    मुझे लगा कि जैसे ये वीभत्स चित्र मेरी कमजोर अभिव्यक्ति को संबल दे रहा है....

    जो मै बता नहीं सकता वो दिख रहा है....

    आप सभी का धन्यवाद है जी और कृप्या इस भावना का जन-जन में विस्तार करे...

    कुंवर जी,

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  3. विचारणीय व सार्थक प्रस्तुती ,बहुत ही सुन्दर जागरूकता फ़ैलाने वाली पोस्ट ..

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  4. कविता तो निसंदेह गहरी मानवीय संवेदना से भरी हैं . आखिरी सी पंक्तियों का दर्द
    "देख नहीं पाए तुम .......खुल कर कहा नहीं " बहुत मार्मिक बन पड़े .

    पर भाई आगे से इतने खतरनाक चित्र मत लगाना क्योंकि रूह काँप गयी (तीसरा चित्र ) .
    तेरी कविताओ को और अलग से दर्द की जरुरत नहीं हैं . शब्द ही काफी हैं .

    --
    !! श्री हरि : !!
    बापूजी की कृपा आप पर सदा बनी रहे

    Email:virender.zte@gmail.com
    Blog:saralkumar.blogspot.com

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  5. ओह्! बेहद मार्मिक...किन्तु समाज को जागरूक करती रचना!

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  6. बहुत मार्मिक....चित्र भी बहुत कुछ कह गए

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  7. सादर वन्दे!
    आपने इस कविता व चित्रों के माध्यम से वह कह डाला जो आज के समाज की पीड़ा है, जो भविष्य की चुनौती है, और जो हमारी पशुता दर्पण है !
    रत्नेश त्रिपाठी

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  8. रचना ने निःशब्द कर दिया.... पर चित्र देख कर ... अजीब सा फील हुआ....

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  9. बहुत ही सम्वेदनशील रचना... किंतु अंतिम चित्र वीभत्स है... आपके वर्णन में वो धार है जो उस चित्र की आवश्यकता को निरर्थक साबित करता है...

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  10. जी जो विभत्सता असल में होती है उसकी तो ये चित्र कुछ प्रतिशत ही दिखा रहा है,इस कुकर्म को नीचा दिखाने के लिए ही मैंने ये चित्र लगाने कि सोची थी...चूंकि आपत्तियां अधिक है तो मै इसे हटा रहा हूँ....

    हौसला बढाने और मार्गदर्शन के लिए आप सब का आभार....

    कुंवर जी,

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  11. एक बेहद संवेदनशील और जागृत करती रचना………………प्रशंसनीय्।

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  12. आपकी कविता को भी मै इस श्रेणी मे रखती हूँ-----मेरे ब्लोग पर पोड्कास्ट की थी.....
    दीपक "मशाल"की कविता----
    http://archanachaoji.blogspot.com/2010/05/blog-post_31.html

    दिलीप की कविता
    http://archanachaoji.blogspot.com/2010/05/blog-post_9398.html

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  13. @अर्चना जी,@वंदना जी-आपका स्वागत है जी,दिलीप भाई और दीपक जी के समकक्ष कहाँ रखा रहे हो जी....हाँ इस बात का दर्द जरुर वही होगा जो और कोई महसूस करता होगा जी.......जब भी पता चलता है इस कुकृत्य का बस रोने को ही दिल करता है.....और रो भी नहीं पाते....

    कुंवर जी,

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  14. वह जो आया भी नहीं था..
    वह भी सह गया..
    अब तो बस करो...
    मानव से कह गया...


    बहुत खूब कुंवर जी. भ्रूण हत्या पर एक संवेदनशील रचना

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  15. संवेदनशील भावों का बखूबी सम्प्रेषण किया कुँवर जी.. बधाई..

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  16. @डिम्पल जी-हमारी बातो को लोग जरूर समझेंगे जी........यदि एक भी समझता है तो कुछ तो साथक फल मिलता है जी यूँ कागज़ काले करने का...

    @दीपक जी-भाई साहब धन्यवाद है जी...

    @गोदियाल जी- बहुत ही नीच कर्म है जी ये.....जितना भी इसे दुत्कारे कम है.....पर ये कुकर्म करने वाले भी हम है...औरो को तो हम सिखा देंगे...बस अपनी बारी में थोड़े से बेशर्म है.....

    कुंवर जी,

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  17. jayada gahan ho gayi, asli matlab samjhne me "waqt to lagta hai........"

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  18. देख नहीं पाये तुम वो आंसू
    जो बहा नहीं,
    सुन नहीं पाये वो विलाप
    जो किसी ने खुल कर कहा नहीं...

    मार्मिक ... मूक क्रंदन को सुन कर भी अनसुना करते हैं दुनिया वाले ... ये त्रासदी है ...

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  19. देख नहीं पाये तुम वो आंसू
    जो बहा नहीं,
    सुन नहीं पाये वो विलाप
    जो किसी ने खुल कर कहा नहीं...
    बेहद मार्मिक रचना!

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  20. आभार पवन जी...

    कुँवर जी,

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