शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

अजीब दास्ताँ है ये...(हास्य-वयंग्य)

राम राम जी!
जीवन भी कई बार अजीब परिस्थितियों से दो-चार करवा देता है!और हर किसी को!मुझे तो ऐसा ही लगता है!अब कुंवर जी को ही लो,फंस गए बेचारे ऐसी ही परिस्थिति में!मजे कि बात ये कि अपने ही घर में!


पौह का महीना हो तो बताने कि आवश्यकता नहीं कि ठंड अपने चरम पर होगी!कुंवर जी के घर में थोडा उत्सव का सा माहोल बनता दिखाई दे रहा था!रविवार था,बस यही तो बात ना होगी?अरे कुंवर जी आ रहे थे दिल्ली से,अब ये मत कहना के पिछले हफ्ते भी तो आये थे!यूँ तो हर रविवार को आ ही जाते है!पर इस बार कुछ तो ख़ास है?


घर में जाकर देखा तो आँगन गाय के ताजे गोबर से लीपा हुआ था!हर तरफ साफ़-सफाई सहज ही देखी जा सकती थी!हर कोई कुंवर जी के आने की बाट जोह रहे थे!कुंवर जी की माताश्री कह रही थी, "कितने दिनों के बाद आ रहा है मेरा बेटा,पता नहीं कितनी देर और लग जायेगी,उसने तो सुबह से कुछ खाया भी नहीं होगा?"
पिताश्री:-"आ जाएगा तेरा लाडला,विलायत से नहीं आ रहा है,ये दिल्ली रही!"


अन्दर कक्ष से जो आवाज आई उस से कहानी का रहस्य खुलता सा प्रतीत हुआ,सो हमने वही  कान लगाना उचित समझा!कुंवर जी की श्रीमती जी ने कही फोन मिलाया हुआ था,आने के तो कम ही अवसर होते है,सो मिलाया ही होगा!सम्भवतः कुंवर जी की साली से बात कर रही थी वें!कह रही थी, "करनाल में तो ढाई हज़ार ही मिलते थे उनको,दिल्ली में पूरे छः हज़ार!मैंने तो पूरे सत्रह व्रत किये थे उनकी इतनी तनख्वाह करवाने के लिए!पहले तो ये कह देते थे की 'इतने' में से क्या बचाऊं?अब तो ये भी ना कहने दूंगी तेरे जीजा जी को!आने दे एक बार उनको;देखती हूँ कितनी लाज रखते है वो मेरे व्रतो की!तीन हज़ार तो मै आते ही ले लूँगी,और सालगिरह भी आने वाली है, इस बार तो सोने की अंगूठी से कम 'गिफ्ट' नहीं चलेगा........"


और अचानक ब्रेक लगने से बस झटके से क्या रुकी,कुंवर जी जैसे कितने ही यात्रियों की नींद एक झटके में ही खुल गयी!हम तो हैरान-परेशान!ये कहाँ हम?श्रीमती जी कहाँ है?इधर-उधर देखा तो पाया कि अभी तो हम बस में ही है!वो सब तो एक सपना था!


असल में जागते हुए आदमी जिन चिंताओं में घिरा रहता है, सो कर भी उन्ही चिंताओं में उलझा रहता है!प्रमुखता के आधार पर चिंताए सपना बन कर सोने के बाद भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती रहती है,कहीं ये हमे भूल ना जाए!अब कुंवर जी कि यही प्रमुखता रही होगी पिछले कई दिनों कि "कैसे पूंजी(तनख्वाह,या बची हुई तनख्वाह) का उचित वितरण किया जाए घर जाकर?"
घर वालो के,विशेषकर घरवाली कि योजनाओं का अनुमान तो हो गया था कुंवर जी को!
अब अपनी स्थिति का भी पूरा पता था हमे!
6000 रुपये वेतन है जरुर,मगर मिलता केवल 5200 रुपये ही है!बाकी कुछ हमारी वर्तमान कि सुरक्षा के नाम पर और कुछ भविष्य की सुरक्षा के नाम पर काट लिया जाता है,जाता कहा है ये तो पता नहीं,पर कटता जरुर है!

जहाँ हम रह रहे है वो दिल्ली है भाई,ससुराल नहीं जो मुफ्त में मलाई-कोफ्ता मिल जाता हो!अरे पानी भी खरीद कर पीना पड़ता है,रोटी,दाल-चावल की बात बहुत दूर रही!
और सबसे पहले "रहना"!चलने-फिरने के लिए तो बहुत जगह है,लेकिन जब थक जाये,तब?गाँव नहीं है जो किसी के भी यहाँ बैठ गए ओए कर लिया टाइम-पास!वो भी हो जाए तो रात को तो एक अपना ठिकाना चाहिए ही होता है!बहुत मिलते है दिल्ली में ठिकाने,पर उनका भी पैसा देना पड़ता है!सब मिला कर कम से कम 3000 रुपये तो तो इन्ही सब में चला गया!घर आने-जाने के में भी कम से कम एक हज़ार तो लग ही जाते है महीने भर में!अब इतनी ज्यादा पहली तनख्वाह थी ,तो दोस्तों के संग 'पार्टी' भी करनी पड़  गयी थी,8 -10 लोग एक साथ चाय पियेंगे तो खाली चाय थोड़े ही पिलाई जाती है,साथ में कुछ और हो ही जाता है!
और अब तक जो किसी से "लिया" हुआ था वो भी तो लौटाना था!
पिछली जेब से जब बटुआ निकाल कर देखा तो उसमे बचा-खुचा कर 800 रुपये मिले!

अब 6000 तनख्वाह वाले स्टेटस के लिए ही सही,अगली तनख्वाह तक जेब इतने पैसे तो होने ही चाहिए!......


सच्चाई तो ये थी हमारी,और घर....????

'सोचा घर पहुँच कर ही देखा जाएगा' और लगे देखने आकाश की और!
जैसे-जैसे बस आगे बढ़ी जा रही थी,घर आने का डर और अधिक सता रहा था!
आखिरकार घर आ ही गया!
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क्षमा चाहूँगा क़ि आगे क्या हुआ ये जानने के लिए आपको अगली पोस्ट का इन्तजार करना पड़ेगा.......
कुंवर जी,

3 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ी दिक्कत है भई ! ये ब्रेसलेट हथकड़ी-सा सामने आ खड़ा हो रहा है अक्षरों के । व्यवधान हो रहा है । ढंग से पढ़ ही नहीं पाया प्रविष्टि ।

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  2. बिलकुल जी बहुत परेशानी है पढने मे ये कुंवर जी को हथक्डी पहना कर । इसे हटाय्3एं धन्यवाद्

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  3. समस्या के लिए खेद है जी!मै थोडा सा आधुनिक होने के चक्कर में पड़ गया था! आपके सुझावों के लिए धन्यवाद!सुधार कर लिए है!भविष्य में यूँ ही जगाते रहना!

    कुंवर जी,

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