दिन की सारी
उमंगो-तरंगो को समेट
रोज
ये शाम
ढल जाती है
सारी चमक
उम्मीदों वाली
शाम की लालिमा में
पिघल जाती है...
ये शाम
ढल जाती है
फिर भी ढलती नहीं
जाने क्यों
रात बन फिर
सुबह में बदल जाती है....
हारता तो नहीं हूँ
पर हार
हो ही जाती है.
उठा कदम
धरते ही
धरती सी फिसल जाती है...
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,
अद्भुत सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!
जवाब देंहटाएंये शाम
जवाब देंहटाएंढल जाती है
फिर भी ढलती नहीं
जाने क्यों
रात बन फिर
सुबह में बदल जाती है....
.......गजब कि पंक्तियाँ हैं ...
ये शाम
जवाब देंहटाएंढल जाती है
फिर भी ढलती नहीं
जाने क्यों
रात बन फिर
सुबह में बदल जाती है....
waah, bahut hi achhi abhivyakti
चमकती उम्मीदों का
जवाब देंहटाएंशाम की लालिमा से
पिघल जाना ....
@...................... वाह क्या खूबसूरत बिम्ब गढ़ा है.
शाम का ढलना
नहीं नहीं .. ढलना नहीं,
रूप बदलना
पहले 'रात'
फिर 'सुबह' के रूप में
@.................. यहाँ प्रतीत हो रहा है ... आपको प्रकृति निरीक्षण के लिये 'प्रहरी' का किसी ने दायित्व दे दिया है.
बहुत ही सहजता से आपने अंत में
अपनी संकल्प दृढ़ता दिखाने
के साथ-साथ उस सत्य को भी स्वीकार
कर लिया है जिसका प्रत्येक जुझारू को
सामना करना होता है
मतलब कि
अन-अभीप्सित
मिलने वाली पराजय का.
हरदीप जी, इस रचना के लिये बधाई.
@संजय भाई- आपका दोहरा धन्यवाद है जी!
जवाब देंहटाएं@आदरणीय रश्मि जी- आपका स्वागत है जी!
आप सब जिस तरह से मुझ जैसे तुच्छ का भी उत्साहवर्धन के लिए हमेशा साथ खड़े दिखाई देते हो वो हमेशा ही मेरे लिए प्रेरणादायी होता है!
कुँवर जी,
@ आदरणीय प्रतुल जी- सर्वप्रथम तो मै आपके लिए आभार प्रकट करना चाहता हूँ,पर कैसे करूँ,नहीं पता!बस आभार है जी!
जवाब देंहटाएंआपका निरिक्षण और विश्लेषण ग़जब है जी!
और एक बात.... कोई बिम्ब-विम्ब नहीं गढ़े गए है जी... जैसा जीवन में चल रहा है और उसके हिसाब से जो मन में मचल रहा था कल वो ही शब्दों में ढल रहा था...
बस आप यूँ ही साथ बने रहिये...बहुत हौसला मिलता है कई बार...
कुँवर जी,
दिन की उमंगो तरंगों को समेत जब शाल ढलती है
जवाब देंहटाएंसाथ अपने वो इतनी हसीन यादें संजोती है
कि खो जाना चाहता हूँ उसके आगोश में
कि बसर करना चाहता हूँ में उसके धुंधलके में