शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

तो आत्मा पे अब कैसा ये बोझ...!(कुँवर जी)

मै हूँ भी या नहीं
इसी असमंजस में
टूट जाता है
भौर वेला में चलता
कोई सुखद सा  सपना
रोज!

परिवार सहारे मेरे..
हुह,
और मै भला किसके..?
जो भी हो 
जिम्मेवारी तो मेरी ही है,,,
और फिर
सब कुछ भ्रम है,
ऐसा कोई कहे..
तो आत्मा पे अब कैसा ये
बोझ!

जय हिंद,जय श्रीराम,
कुँवर जी, 

6 टिप्‍पणियां:

  1. मै हूँ भी या नहीं
    इसी असमंजस में
    टूट जाता है
    भौर वेला में चलता
    कोई सुखद सा सपना
    रोज!
    sach hai, mann ki yahi sthiti hai

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  2. भावनाओं से परिपूर्ण, बेहद गहरी रचना.

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  3. भावपूर्ण प्रस्तुति
    सब कुछ बड़ी सहजता से कह दिया आपने....

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  4. परिवार सहारे मेरे..
    हुह,
    और मै भला किसके..?
    ये बहुत गहरी और मर्मस्पर्शी पंक्तिया हैं. कुछ भी कर लो कितनी ही महानता कि बाते जब परिवार सामने आता हैं कि इन रिश्तो को निभाना मेरी जिम्मेदारी क्यों हैं. क्यों हम कभी एक छोटे बच्चे कि तरह मुक्त नहीं रह सकते और जहाँ कोई हमारा भी गोड फादर हो जिसके सामने हम अपनी परेशानी भी कह सके . बस उस गोड फादर के बारे में इतना कह सकते हैं काश वो होता जिसके सहारे हम रह जाते . यहाँ तो जो घर परिवार को संभालता हैं उसके तो जैसे सारे सुख ख़तम हो जाते हैं. और शर्ते परिवार वालो के हिसाब निभानी पड़ती हैं कि बेटा समाज से भाग कर तो जाया नहीं जाता .ये तो फ़र्ज़ हैं .बस किसी एक जिंदगी को आसान कर देने वाले शख्स से नाता जुड़ जाये या बस ये कह कर सुखी हो सकते हैं कि कही तो होगी वो दुनिया जहाँ तू मेरे साथ हैं .

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  5. सहज अभिव्यक्ति ... आसानी से कह दिया ...

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