गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

आँखे अब और भी चमक रही थी...(कुंवर जी)

साँस भला कब तक रोकता समय,
सुबह तो होनी ही थी,
पर ये क्या?
दिन तो निकला पर सूरज नहीं!
सब कुछ धुंधला-धुंधला
उस सर्द सुबह में,
तारे बेचारे
थक हार कर या
सुबह की लाज बचाने की खातिर
चले गए थे!
पक्षियों का आलस ज्यों का रयों था,
या तो वो घबराए हुए गुमसुम थे!
कालिया जो ख्वाब देख रही थी
खिलने के,
खुद पर तितलियों के मंडराने के,
जगी जरुर,पर मुस्कुराई नहीं,
तितलियाँ भी कहा आई थी,
क्योकि...
दिन तो निकला पर सूरज नहीं!

पत्ते उदास हो चले थे,
हौसले तोड़ दिए थे टहनियों ने भी,
और कालिया तो रो ही पड़ी
जब देखा उनके चारो और तितलियों के पंख
पड़े है बिखरे हुए!
उस पर न धुप का सहारा मिला,
तो यूँ तदपि कालिया
जैसे किसी ने सांस आने के सभी दर मूँद दिए हो...

तितलियों के बिखरे पंखो के बीच
लाचार कलियों को दम तोड़ते देख
झटके से; एक सांस खींच,
मुट्ठिया भींच आँखे खुली...
तो देखा

तितलियाँ तो उड़ रही थी,
क्योकि कालिया फूल बन खिलखिला रही थी!
पंछी भी खुले आसमान में
पर फैला चहचहा रहे थे,
क्योकि सूरज तो चमक रहा था क्षितिज पर,
और तारे कहीं भी न थे,
न उनकी जरुरत भी थी!

और बूँद ओस की,
आँख की पुतली से चल
समां गयी आँख की कौर में,
जो अब भी
पलके झपकाने से भी दर रही थी
कही फिर कोई सपना न दिख जाए,
पर
आँखे अब और भी चमक रही थी!



जय हिन्द,जय श्रीराम
कुँवर  जी,

4 टिप्‍पणियां:

  1. कोमल अहसासों से परिपूर्ण एक बहुत ही भावभीनी रचना जो मन को गहराई तक छू गयी ! बहुत सुन्दर एवं भावपूर्ण प्रस्तुति ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  2. बहुत दिनों बाद इतनी बढ़िया कविता पड़ने को मिली.... गजब का लिखा है................कुँवर जी,

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  3. .

    जब रचना उत्तम हो तो चित्र की ज़रुरत नहीं रहती.
    और यह भाव-रचना इतना दम रखती है कि बिना चित्र के खड़ी रह सके. कुँवर जी भाव को पूरी तरह स्पष्ट करती बेहद सुन्दर शब्दावली प्रयोग में लाये हैं आप.

    .

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  4. प्रिय बंधुवर कुंवर जी
    सादर सस्नेहाभिवादन !

    कई एहसासों का उतार - चढ़ाव देखने को मिला आपकी इस रचना में … क्या बात है !
    प्रतुल जी ने भी ठीक कहा रचना उत्तम हो तो चित्र की ज़रुरत नहीं रहती … … …

    क्षमा चाहता हूं , आपके यहां बहुत विलंब से पहुंचा हूं …

    बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !

    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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