मेरे शब्दकोष में कितने शब्दों के अर्थ बदल गए,
अरमानो के सूरज कितने चढ़ शिखर पर ढल गए,
फौलादी इरादे वक़्त की तपन से मोम के जैसे पिघल गये,
सपनो तक जाने वाले रस्ते भौर होते ही मुझको छल गये,
इसी लिए तो आजकल बाते कम किया करता हूँ मै,
जिह्वा दब जाती है शब्दों के बोझ तले तो दो पल को सोचा करता हूँ मै,
पहले हर हरकत एक जूनून हो जाती थी,
करना है तो बस करना है ऐसी धुन हो जाती थी,
क्या फ़िक्र थी कि ओरो की नजर ये बाते गुण या अवगुण हो जाती थी,
गुम था भविष्य,वर्तमान के लिए तो ये ही शगुन हो जाती थी,
आज शगुन को भी दो घडी टटोला करता हूँ मै,
तुमको लगा तो ठीक लगा के बाते करते सोचा करता हूँ मै,
मुझे अनुभव रेत के महलो का है सो डरता हूँ हर आहट से,
कितनी चतुराई क्यों न दिखाऊ हार जाता हूँ इस समय के इक पल नटखट से,
फिर वो खड़ा मुस्कुराता है बेफिक्र और बेखबर हो मेरी हर झल्लाहट से,
सब भूलने का हौसला भी यूँ तो देता,उलझा कर तभी नयी खटपट में,
बस यही से फिर जीने का दम भर जाता हूँ मै!
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,
अंतर्मन के द्वंदो कों व्यक्त करती अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंमुझे अनुभव रेत के महलो का है सो डरता हूँ हर आहट से,
जवाब देंहटाएंह्र्दय की गहराई से निकली अनुभूति रूपी सशक्त रचना !!
बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (07.10.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .
जवाब देंहटाएंकविता का नाम फीड में देखा तो कुछ अचरज हुआ। यहाँ तो कविता कुछ और ही कहती मिली
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया से व्यक्त किए है मनोभाव
जवाब देंहटाएंऐसे सब शब्दों को कांट के फैक देना चाहिए ... अंतरमन के इस द्वंद से बाहर आना चाहिए ...
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