क्या धरा संतो से खाली हो गयी है?
यदि नहीं तो आज सन्त कौन है या कौन हो सकता है?
आभी समय ऐसा हुआ जाता है कि हर मनुष्य तुरन्त परिणाम पाना चाहता है!उसे कैसे-क्या करना है इसका ज्ञान नहीं है!फिर अध्यात्म या धर्म सम्बन्धी विषय की जानकारी भी उसे नहीं है,कम से कम जितनी होनी चाहिए उतनी तो है ही नहीं!कही सुनी बातों पर ही वह भागा फिरता है!उसके जीवन में परेशानिया जितनी है उस से भी अधिक उसकी जरूरते है,जिनको पूरा करने के चक्कर में किसी ओर बात पर वो ध्यान नहीं दे पा रहा है!वो चाहता है कि उसके जीवन की भौतिक जरूरते पूरी करने वाली दिनचर्या भी यथावत चलती रहे और आनन्-फानन में अध्यात्म की जानकारी भी ले ले,या सीधे ही परमात्मा का साक्षात्कार भी कर ले,क्योकि उसने सुना है कि यही परम अवस्था है,यही हमारे होने का उद्देश्य है!
अब समस्या यह है कि उसे इस विषय के बारे में केवल सुना है,तेरे-मेरे के मुह से,जिन पर उसे इतना विश्वाश नहीं है!ऐसे में उसे ध्यान आता है कि बिन गुरु भी निस्तार नहीं है!वही उसे सच्चा ज्ञान देगा जो उसकी भौतिक जरूरतों को पूरा करते हुए परमात्मा-प्राप्ति का मार्ग पक्का करेगा!
यहाँ एक और भावना उभर कर आती है,वो है "आस्था और श्रद्धा" की! हमारी अपने गुरु में पूरी आस्था होनी चाहिए,कोई भी शंका हमारी श्रद्धा से ऊपर नहीं होनी चाहिए!फिर गोबिंद से पहले गुरु-पूजन भी बताया है!अब यदि कोई अपने माने हुए गुरु में अंध-विश्वाश भी कर ले तो उसकी कहा तक गलती है!यदि विश्वाश ना करे तो उनकी परीक्षा लेना भी तो उचित नहीं लगता है!
हाँ!विश्वाश करने,उसे अपना गुरु मानने से पूर्व हम उसकी जांच-परख कर सकते है!लेकिन आज जनसँख्या ही इतनी हो गयी है कि बस अड्डा,हस्पताल,रेलवे स्टेशन और (यहाँ तक के)हर धर्म-स्टेशन पर बहुत बड़ा जन समूह दिखाई देता है!किसी पर भी विश्वाश कर लेने का एक बहुत बड़ा कारण ये देखा-देखी भी है!सोचते है,अब इतने सारे लोग पागल तो ना होंगे!
उसके ऐसा होने के कारणों पर अलग से चर्चा चलनी चाहिए!
यदि नहीं तो आज सन्त कौन है या कौन हो सकता है?
आभी समय ऐसा हुआ जाता है कि हर मनुष्य तुरन्त परिणाम पाना चाहता है!उसे कैसे-क्या करना है इसका ज्ञान नहीं है!फिर अध्यात्म या धर्म सम्बन्धी विषय की जानकारी भी उसे नहीं है,कम से कम जितनी होनी चाहिए उतनी तो है ही नहीं!कही सुनी बातों पर ही वह भागा फिरता है!उसके जीवन में परेशानिया जितनी है उस से भी अधिक उसकी जरूरते है,जिनको पूरा करने के चक्कर में किसी ओर बात पर वो ध्यान नहीं दे पा रहा है!वो चाहता है कि उसके जीवन की भौतिक जरूरते पूरी करने वाली दिनचर्या भी यथावत चलती रहे और आनन्-फानन में अध्यात्म की जानकारी भी ले ले,या सीधे ही परमात्मा का साक्षात्कार भी कर ले,क्योकि उसने सुना है कि यही परम अवस्था है,यही हमारे होने का उद्देश्य है!
अब समस्या यह है कि उसे इस विषय के बारे में केवल सुना है,तेरे-मेरे के मुह से,जिन पर उसे इतना विश्वाश नहीं है!ऐसे में उसे ध्यान आता है कि बिन गुरु भी निस्तार नहीं है!वही उसे सच्चा ज्ञान देगा जो उसकी भौतिक जरूरतों को पूरा करते हुए परमात्मा-प्राप्ति का मार्ग पक्का करेगा!
यहाँ एक और भावना उभर कर आती है,वो है "आस्था और श्रद्धा" की! हमारी अपने गुरु में पूरी आस्था होनी चाहिए,कोई भी शंका हमारी श्रद्धा से ऊपर नहीं होनी चाहिए!फिर गोबिंद से पहले गुरु-पूजन भी बताया है!अब यदि कोई अपने माने हुए गुरु में अंध-विश्वाश भी कर ले तो उसकी कहा तक गलती है!यदि विश्वाश ना करे तो उनकी परीक्षा लेना भी तो उचित नहीं लगता है!
हाँ!विश्वाश करने,उसे अपना गुरु मानने से पूर्व हम उसकी जांच-परख कर सकते है!लेकिन आज जनसँख्या ही इतनी हो गयी है कि बस अड्डा,हस्पताल,रेलवे स्टेशन और (यहाँ तक के)हर धर्म-स्टेशन पर बहुत बड़ा जन समूह दिखाई देता है!किसी पर भी विश्वाश कर लेने का एक बहुत बड़ा कारण ये देखा-देखी भी है!सोचते है,अब इतने सारे लोग पागल तो ना होंगे!
उसके ऐसा होने के कारणों पर अलग से चर्चा चलनी चाहिए!
लेकिन असल प्रशन जो अभी चित में कुलाचे मार रहे है वो ये कि,माना पाखण्ड ने अपने पैर पूरी तरह से पसार रक्खे है,लेकिन जब पहले भारतवर्ष में ऋषि-मह्रिषी हुए है और होते रहे है तो आज भी कोई ऋषि-मह्रिषी कहलाने के लायक व्यक्तित्व अस्तित्व में है या नहीं?क्या जो दिखता है वो सब पाखण्ड ही है?और जो पाखंडी अभी धर्मगुरु बना फिर रहा है(चाहे वो कोई भी हो) क्या ये उस पर परमात्मा कृपा नहीं है,और जो उसके बहकावे आ रहे है उन पर किस कि कृपा हो रही है?
जय हिन्द,जय श्री राम,
कुँवर जी,
धरा न तो संत-विहिन होती है न पाखण्ड विहिन!!
जवाब देंहटाएंवस्तुतः दुखद सच्चाई यह है कि हमारा ज्ञान ही मिथ्यात्व से आवृत रहता है।
कई बार हमें अपना ही मिथ्या धारणाओं वाला मन्तव्य वास्तविक संत तक हमें पहुँचने ही नहीं देता।
अज्ञान का अंधेरा गाढ़ हो तो हमें पाखण्ड श्रद्धा से मुक्त ही नहीं होने देता।
मनःस्थिति और सोच का सम्यक होना जरूरी है।
लाख टके का प्रश्न और उस पर बहुमूल्य टिप्पणी। हर ओर हर रोज़ इतने पाप होते हुए भी संसार का कारोबार चल रहा है इसका कारण यही है कि सत्पुरुष न केवल हैं बल्कि अच्छी खासी संख्या में हैं। धरा जिस दिन संतों से खाली हो जायेगी वह तो प्रलय का दिन होगा। गीता में भगवान कृष्ण जब सम्भवामि युगे युगे कहते हैं तब परित्राणाय साधूनाम की बात भी करते हैं, साधु हैं तभी उनके परित्राण की आवश्यकता है। अब दूसरी बात - संत हैं तो दिखते क्यों नहीं, क्यों हर तरफ़ पाखण्डी नज़र आते हैं। उत्तर जटिल है लेकिन दो उदाहरण शायद बात को आसान करें - 1. हरदम कृष्ण के साथ रहने वाले अर्जुन को भी विराटरूप देखने के लिये दिव्यदृष्टि की ज़रूरत पड़ी थी। 2. अगर एक असीम तल पर असंख्य बिन्दु बने हों तो हर बिन्दु केवल अपने आसपास के बिन्दुओं को ही देख सकता है, उनके पार के बिन्दु दृश्यपटल के बाहर हैं, इसी तरह अच्छाई को परखने के लिये अपने अन्दर की क्षमता (और अच्छाई) को भी निखारना पड़ता है। प्रयास चलता रहे, दृष्टि निखरती रहे, संतत्व की परख भी बेहतर होती जायेगी। शुभकामनायें!
जवाब देंहटाएंसंत भी हैं । और पाखंडी भी। अपने विवेक से दोनों की सही पहचान की जा सकती है।
जवाब देंहटाएं@ सुज्ञ जी से सहमत हूँ
जवाब देंहटाएंमनःस्थिति और सोच का सम्यक होना जरूरी है !
agree with sugya ji .
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