गुरुवार, 5 मई 2011

मजबूर होते है वो भी और हम भी....(कुँवर जी)

कुछ पत्ते दूर पड़े,
ज्यादा नहीं थोड़ी सी दूर पड़े
अपने पेड़ से
कराह रहे थे....
मैंने
जो उठाया उनको
प्यार से
वो तो
मुस्कुराने लगे!


सूख चुके थे
जाने कब टूटे होंगे
शाख से,
मैंने
कब उनको उठाया था
शाख से जोड़ने के लिए,
वो;
फिर भी गुनगुनाने लगे!


मजबूर तो होते है वो
भी और हम भी
ये सच है,
तभी तो
उस
पेड़ की आँखों में भी
आंसू आने लगे!


जय हिंद,जय श्रीराम,
कुँवर जी,

6 टिप्‍पणियां:

  1. एक सम्पूर्ण पोस्ट और रचना!
    यही विशे्षता तो आपकी अलग से पहचान बनाती है!

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  2. संजय भाई स्वागत है आपका,प्रशंशा के लिए आभार!वैसे ये टेम्पलेट मैंने ऋचा जी के ब्लॉग पर देखा था,तभी से ये मुझे बहुत ही अधिक अच्छा लगा था....



    कुंवर जी,

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  3. वाह,,,,

    प्रेम भरा स्पर्श ...सूखे पत्ते,डाल से टूटे ...मुस्कुराने लगे

    ......................गहन भावों की सार्थक अभिव्यक्ति

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  4. @अलबेला जी,@सुरेंदर जी - स्वागत है जी आपका,आपको एक बार फिर यहाँ देख कर प्रसन्नता हुयी!



    कुंवर जी,

    जवाब देंहटाएं

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