बुधवार, 26 जून 2013

प्रकृति ने की क्रिडा तो उपजी पीड़ा...(कुँवर जी)

जब तक चली तो खूब खेला
मानव प्रकृति संग
और जब
प्रकृति ने की क्रिडा
तो उपजी पीड़ा,
विश्वाश 
कही घायल पड़ा
लोगो से नजरे चुरा
कराह रहा है,
श्रद्धा
किसी पेड़ की टहनी में
अटकी हुई सी
किसी कीचड़ में दबे चीथड़े में
सिमटी हुई सी मौन है!
आस है कि
टकटकी लगाये बैठी है
उसी की और ही
जिसने
ये तांडव मचाया है!


जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी

13 टिप्‍पणियां:

  1. आस है कि
    टकटकी लगाये बैठी है
    उसी की और ही
    जिसने
    ये तांडव मचाया है.....यही तो इंसानी फितरत है ..

    प्रकृति पर तांडव करते इंसान अपने बीच के ही होते है इसलिए समय रहते कोई कुछ नहीं कह पाता .. . जब कोई रास्ता नहीं हो तो टकटकी एक तरह की लाचारी बन जाती है ...

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    1. बिलकुल सही कविता जी! कुछ और चारा ही नहीं दिखाई देता!

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  2. विवशता को खूब उकेरा है।

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    1. कितने ही दिन बहता रहा... कभी किसी चट्टान के नीचे तो कभी ढहते हुए मकान में दबा.... और जब बैठे बैठे घुटन असहनीय हुई तो...
      और कुछ सुझा ही नहीं सुज्ञ जी!

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  3. .सच्चाई को शब्दों में बखूबी उतारा है आपने .बेहतरीन अभिव्यक्ति . आभार संजय जी -कुमुद और सरस को अब तो मिलाइए. आप भी जानें संपत्ति का अधिकार -४.नारी ब्लोगर्स के लिए एक नयी शुरुआत आप भी जुड़ें WOMAN ABOUT MAN

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    1. Sachchai to kahi adhik bhayawah rahi hogi shalini ji, ham to bas anuman hi lga sakte h iska. Jinhone anubhav kiya wo hi jaante hai asali dard to...

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  4. सुन्दर भाव. इसमें कोई शक नहीं की प्रकृति का जिस तरह दोहन किया जा रहा है, उसको दुष्परिणाम भी हमे ही उठाने होंगे.

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  5. टकटकी लगाये बैठी है
    उसी की और ही
    जिसने
    ये तांडव मचाया है!

    ..........सटीक और सच

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  6. दुष्परिणाम हमे ही उठाने होंगे.

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    1. उठा ही रहे है राज जी पर विडम्बना ये है कि तब भी नहीं समझ रहे है!

      कुँवर जी,

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  7. दर्द की बढ़िया अभिव्यक्ति ..

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    1. आदरणीय सतीश जी क्षमा चाहूँगा, आपका कमेन्ट स्पैम बॉक्स में चला गया था अभी देखा...
      आपको यहाँ देख कर बहुत अच्छा लगा!आभार!

      कुँवर जी,

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