राम राम जी, कई दिनों के बाद आज कुछ लिखना चाहता हूँ!असल में मै नहीं चाहता ऐसा लिखना पर क्या करूँ,जो दिखता कलम वो ही तो लिखता है! ऐसा ही कुछ कही पढ़ा या सुना था शायद..... शुरूआती पंक्ति तो पक्का!आगे कुछ-कुछ अपने आप जुड़ता चला गया!
सब लगे है अपने ही जुगाड़ में
बाकि देश जाए भाड़ में!
अपने ही हित साधने में लगा हर कोई
समाज सेवा की आड़ में,
बाकि देश जाए भाड़ में!
ज़मीर मूर्छित पड़ा है और सब राम है
संजीवनी कौन ढूंढे पहाड़ में,
बाकि देश जाए भाड़ में!
कब मौका मिले कब काटे गला किसी का
और आपस ही के लाड़ में,
बाकि देश जाए भाड़ में!
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी,
सटीक
जवाब देंहटाएंआभार सुज्ञ जी...
हटाएंयही परेशानी है।
जवाब देंहटाएंजी और ये बहुत बड़ी परेशानी है.,
हटाएंआपने समझी, आभार!
कुँवर जी, रामराम
जवाब देंहटाएंमुझे एक गीत मिला लो कबाड़ में.
सुनाता हूँ आपके ब्लॉग की आड़ में.
काली कोयल कूकती अमुआ की झाड़ में.
सोणी कोयल कूक गई ... कोयला पहाड़ में.
कान सुन्न हो गये ... शेर की दहाड़ में.
खान सुन्न हो गयीं... २जी पछाड़ में.
सावन में सूखते रहे ... भीगते आषाढ़ में.
बह गये कुछ लोग ... जयपुर की बाढ़ में.
पीएम् बेटा बन ही जाये मम्मी के लाड़ में.
चिंता नहीं ये देश जाये ...... चाहे भाड़ में.
आदरणीय प्रतुल जी, राम राम,
हटाएंआपको कहा किसी आड़ की जरूरत है कुछ भी रचने के लिए!
बहुत ही सधे हए और सीधे कटाक्ष किये आपने!
कुँवर जी,
सच्चाई से कही गयी बात अच्छी लगी....
जवाब देंहटाएंआभार सुनील जी,
हटाएंyahi attitude hai aajkal!!
जवाब देंहटाएंवाह .. मज़ा आ गया ... सच लिखा है देश की चिंता किसी को नहीं है आज ...
जवाब देंहटाएंप्रतुल जी ने सोने पे सुहागा जड़ दिया है ....
दूसरे के भले की फ़िक्र कहाँ किसी को !
जवाब देंहटाएंफल है दूर, खजूर के झाड़ में,
बाकी देश जाए भाड़ में....
बढ़िया रचना....और लिखने से खुद को रोक नहीं पायी...
:-)
अनु
बेहद गहरे अर्थों को समेटती खूबसूरत और संवेदनशील रचना
जवाब देंहटाएंसच है - यही स्थिति है :(
जवाब देंहटाएंलेकिन बात तो फिर वही है न ? हम भी यही कर रहे हैं - लगे हैं अपनी जुगाड़ में - देश / समाज / मानवता / धर्म सब कुछ ही तो भाड़ में झोंके बैठे हैं - हम सब भी ( i mean we the blog writers too )