अनजानों में कही छिपा होता है
जाना-पहचाना सा कोई
कभी रास्ते बदल जाते है
तब जान पड़ता है
कभी राहे वो ही रहती है
नजरिये नहीं बदलते
और लोग बदल जाते है।
कभी रास्ते बदल जाते है
तब जान पड़ता है
कभी राहे वो ही रहती है
नजरिये नहीं बदलते
और लोग बदल जाते है।
फिर कही दूर किसी मोड़ पर
पलटते है हम
ना जाने क्या सोच कर
साँस समेट कर धड़कन रोक कर
पलटते है हम
ना जाने क्या सोच कर
साँस समेट कर धड़कन रोक कर
और
और पीछे से जिन्दगी छेड़ती है हमे
कहती है कि मै यहाँ तेरी राह तक रही
तू किसकी राह देखे।
कहती है कि मै यहाँ तेरी राह तक रही
तू किसकी राह देखे।
मन के चोर को मन में छिपा
आँखों मिचका कर
कहते हम भी फिर
अरे तुझे ही तो ढूँढ रहे थे।
चलो चलते है।
अरे तुझे ही तो ढूँढ रहे थे।
चलो चलते है।
जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुँवर जी ,
खुद से ही कहते हैं तेरी राह ढूंढते थे हम .. ऐसी चोरी कहाँ छुपती है ....
जवाब देंहटाएंआभार नासवा जी। खुद से पर्दा कहाँ चलता है भला।
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-12-2014) को "आज बस इतना ही…" चर्चा मंच 1816 पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी। आज बहुत दिनों के बाद ब्लॉग पर आना हुआ था और आपने इतना ज्यादा सम्मान दे दिया। मैंने तो सोचा भी नहीं था ऐसा।
हटाएंअब सम्भव हो कि आपकी दी हुई ऑक्सीजन से ब्लॉग अब जीवित रहे।
बढ़िया
जवाब देंहटाएंपुष्पित हृदया जी धन्यवाद।
हटाएंbahut sunder prastuti
जवाब देंहटाएंलेखिका जी बहुत बहुत धनयवाद।
हटाएंगहरे शब्द.... दूर की बात .... मन के भाव सहज ही काग़ज़ पर उतार दिए आपने ....
जवाब देंहटाएंआपको नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं!!
जवाब देंहटाएंवाह.बहुत खूब,सुंदर अभिव्यक्ति,,,
जवाब देंहटाएंएक बार हमारे ब्लॉग पुरानीबस्ती पर भी आकर हमें कृतार्थ करें _/\_
http://puraneebastee.blogspot.in/2015/03/pedo-ki-jaat.html