मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

हम हिन्दू है या मुसलमान है,यदि इंसान है तो क्या हम ऐसा करते है...?(कुंवर जी)

आजकल विवाहों के उत्सव का माहौल है हर तरफ!ना चाहते हुए भी जाना पड़ रहा है बहुत सी जगह तो!किन्तु इस बार हर जाने पर एक विचार जो मन में कुलबुलाने लगता है,या यूँ कहे कि कुलबुलाता रहता है!
मै सोच रहा हूँ कि जब भी हम किसी के ऐसे उत्सव(बड़े या छोटे) में शामिल होते है,तो क्या हम हर बार उस उत्सव के सफल होने कि कामना करते है?

कई बार हमें किसी के मरणोपरांत उनके परिवार से मिलने जाते है,तो क्या हम दिल से एक बार भी स्वर्गीय आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना करते है?

किसी विवाहोत्सव में शामिल को होने पर क्या हम उस विवाह समारोह के शांतिपूर्ण सफल होने ओर उन दोनों का जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होने की प्रार्थना करते है!

किसी रोगी या दुखी से मिलते है या सोचते है तो क्या उसके रोग और कष्टों के निवारण की प्रार्थना हम परमात्मा से करते है?

किसी दरिद्र को देखने पर या उसे कुछ देते समय उसकी दरिद्रता समाप्त करने की प्रार्थना हम परमात्मा से करते है?

क्या हम दिल से किसी परिचित अथवा अपरिचित के दुःख या सुख में भागीदार बनते है...???
आज बस यही......

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

6 टिप्‍पणियां:

  1. .

    भागमभाग वाली जीवन पद्धति में केवल हम औपचारिकता निभाते जा रहे हैं.

    ऑफिस से एक घंटे पहले निकलकर फलाने के बर्थडे में शामिल होना है. फलाना गिफ्ट देना है. फलाने के घर जाकर माता जी के गुजरने पर अफ़सोस व्यक्त करके आना है.
    फलाने को फोन करके बेस्ट विशिज़ देनी हैं. फलाने को एक्साम के लिये बेस्ट ऑफ़ लक कहना है. आदि-आदि.

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    अरे आपके ब्लॉग के बाद तीन और को भी तो टिप्पणी देनी हैं नहीं तो कल से वे मेरे ब्लॉग पर आना छोड़ देंगें.

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  2. राम राम प्रतुल जी,

    मै समझ रहा हूँ कि आप क्या कहना चाह रहे हो....!

    पर क्या इतना ही पर्याप्त है...???

    बाकी तीन ब्लोग्स पर टिप्पणी करने के पश्चात भी समय बचे तो थोडा विचारो को विस्तार देना जी...

    कुंवर जी,

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  3. औपचारिकताएँ ही रह गई है!!

    प्रारम्भ में तो ऐसे मिलन मात्र शुभकामना या सम्वेदना तक नहीं बल्कि एक दूसरे के काम आने तक था। फिर ऐसे अवसर शुभकामना या सम्वेदना तक सीमट गये, आज हालत यह है कि उपस्थिति के नाम मात्र चहरा दिखाना है।

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