वो रिश्ता जो अनजान था,अनाम था,
गैरजरूरी सा और बेकाम था,
वो बे-मुकाम और बे-आयाम था,
हम उस रिश्ते में या वो हम में तमाम था!
हमें कुछ भी पता नहीं करना था!
श्रद्धा,समर्पण और बस एक विश्वाश था,
बिना किये जो हुआ वो एक प्रयास था,
देखो सच्चा होकर भी बस एक कयास था,
वो रिश्ता तो आम पर उसमे जरूर कुछ ख़ास था!
सच में हमें कुछ भी पता नहीं करना था!
सोच मेरी नहीं तो क्या कोई अरमान पराये है,
या कोई सपन-सलोने है जो बस हमीं ने सजाये है,
इतनी बातो के बाद भी अब ये ख्याल कहाँ से आये है,
कुछ भी हो हमें कुछ भी पता नहीं करना है!
जय हिन्द,जय श्री राम,
कुंवर जी,
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति के प्रति मेरे भावों का समन्वय
कल (30/8/2010) के चर्चा मंच पर देखियेगा
और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
"कुछ भी हो हमें कुछ भी पता नहीं करना है!"
जवाब देंहटाएं@ दार्शनिक अंदाज़.
प्रायः यह निश्चिंतता दो अवस्थाओं में देखने में मिलती है. पहली प्रेम में असफल होने पर, दूसरी सांसारिकता की निह्सारता का बोध होने पर.
बहुत खूबसूरती से भाव पिरोये हैं ..
जवाब देंहटाएंसोच मेरी नहीं तो क्या कोई अरमान पराये है,
जवाब देंहटाएंया कोई सपन-सलोने है जो बस हमीं ने सजाये है,
इतनी बातो के बाद भी अब ये ख्याल कहाँ से आये है,
कुछ भी हो हमें कुछ भी पता नहीं करना है!...
इस खूबसूरत रचना से के साथ आप दुबारा आए हैं ... स्वागत है आपका ... और आपके इस दार्शनिक अंदाज़ का ...