यादों से लड़ना हो या उनसे खेलना......दोनों ही हमें किसी ओर दुनिया में पहुंचा देते है!कभी गिरते है हम कभी खुद ही तन जाते है.....खामोश बैठे-बैठे यूँही अचानक मुस्कुराते है.....और तो क्या ख़ाक समझेंगे जब हम ही कुछ समझ नहीं पाते है!
और जब यादे उन पुराने मित्रो की हो जो कभी एक जान रहे हो,और अभी आस-पास भी ना हो तो.......
बस वो सब महसूस करने वाला होता है!कुछ-कुछ बताने के लिए कुछ लिख छोड़ा था कभी....आज आप सभी के समक्ष है.....
एक किताब की सिलाई उधड़ने पर जैसे
बिखरते है उसके पन्ने,
जानकारी जो होती थी कभी पूरी
रह जाती है आधी-अधूरी,
और फिर चलता है दौर लम्बा एक
पन्नो के फड़फड़ाने का,
कोई कहीं उड़ चला जाता है संग हवा के
कोई अटक जाता है कहीं!
न कोई सुनता है न ही समझता है तो
क्या फायदा उनके यूँ फड़फड़ाने का!
कभी गुजर जाते बिलकुल पास से
गुजर जाते,बनी रहती फिर भी उनमे दुरी!
फिर कभी वो किताब नहीं बनते दुबारा
रहते है यूँ ही बिखरे पन्ने!
जैसे हम........
जय हिन्द,जय श्रीराम,
(कुंवर जी)
sunder abhivykti..
जवाब देंहटाएंबढ़िया रचना अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंजय अम्बे माँ
Beautiful as always.
जवाब देंहटाएंkeep it up yaar....
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंकुँवर जी,
आप हमारे मन में इस कदर गुँथे हो कि कोई शक्ति उनकी डोर ढीली नहीं कर सकती. वह प्रेम की डोर ही है जिससे आप गुँथे हो.
हाँ, आपको अपने मन की बिखरी चीज़ों को नत्थी करना है, जो अचानक आयी हवा ने बखेर दिए हैं. अगर आप स्मृतियों के पन्नों को सार्वजनिक रूप से खुला रखोगे तो वे बिखरेंगे ही. मैं जब भी कोई कविता अपने ब्लॉग पर डालता हूँ दो व्यक्ति हमेशा याद आते हैं. एक आप और दूसरे दिलीप जी. जो ना जाने क्यों ब्लॉग जगत से दूरी बनाए हुए हैं?
— आपकी स्मृति को हमेशा संजोकर रखने वाला आपका पाठक.
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अच्छी रचना है ।
जवाब देंहटाएंयादो, भावनाओं और कल्पनाओं का ही तो सब खेल है- भैया !!!
जवाब देंहटाएंइनसे छूटे नहीं की जीवन्मुक्त हो गए
सराहनीय लेख !!!
subhan allah, subhan allah.........
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