आज बस एक प्रशन जिससे मै अकेला जूझता रहता हूँ!
"क्या हमारा अपना इतना सामर्थ्य है कि हम परमात्मा की दी हुई प्रेरणा को अस्वीकृत कर दे,उसे औचित्यहीन घोषित कर दे,बिना उसकी सहमती या आज्ञा के.....?"
मै मानता हूँ कि 'शब्द' 'विचार' को अक्षरशः प्रस्तुत करने में असफल ही होते है और फिर उन असफल शब्दों से जो विचार बनेंगे क्या वो सफल सिद्ध होंगे.....?नहीं जानता....
तत्पश्चात भी मेरे विचारों के अधिकतम समीप जो शब्द मुझे जान पड़े वही आपके हवाले कर रहा हूँ...आज...!
जो कुछ भी आपके मस्तिष्क में चले इसे पढ़कर कृपया अवश्य अवगत कराये सभी को....क्या पता आपके बहाने किस को क्या मिल जाए........
जय हिंद,जय श्रीराम,
कुंवर जी,
aapse sehmat hun...us upari satta aur shakti ke bina shabd kabhi chamatkaar nahi kar paate...hindi se nata to high school ke baad hi chhoot gaya tha...par fir bhi jab bhi kuch likhne ka prayas karta hun lagta hai koi yakat hai jo kalam chala rahi hai..varna shabdo ke khel khele to jamane ho gaye the....
जवाब देंहटाएंek aur baat ant me kunwar ji kar lijiye...:)
shabdon aur vicharon ka adbhut sangam hain........bina vicharon ke shabd nahi aate aur bina shabdon ke vichar prastut nhi kiye ja sakte........baki jahan tak parmatma ka sambandh hai to uski prerna ke bina to patta bhi nahi hil sakta to shabd aur vichar , sahmati aur asahmati sab usi ke aadhin hai..........manushya ka har kaam har vichar sab usi ki prerna se hote hain..........manushya ki koi haisiyat hi nahi ki use nakar de...........jab uski ek ek saans uske aadhin hai to uski soch parmatma se alag kaise ho sakti hai.........uske kriyakalap kaise alag ho sakte hain.
जवाब देंहटाएं???????????????
जवाब देंहटाएंbhaai jaan prmaatmaa se aatmaa kaa miln ho to sb kuch snbhv he styvaan saavitri kaa qissaa hmaare saamne he. akhtar khan akela kota rajasthan meraa hindi blog akhtarkhanakela.blogspot.com he
जवाब देंहटाएंमाधव की ही तरह मेरे भी सर के ऊपर से निकल गया आपका सवाल कुंवर जी !
जवाब देंहटाएंमै मानता हूँ कि 'शब्द' 'विचार' को अक्षरशः प्रस्तुत करने में असफल ही होते है
जवाब देंहटाएंbilkul satya keh rahe ho kunwar ji
बिलकुल जी मैं इस का उत्तर कैसे दू.
जवाब देंहटाएंवो कहा हैं न किसी ने की जहा तक हमारी सोच जाती हैं वह तक हम लिख देते हैं हैं पर कुछ ऐसा भी हैं यहां पे की जो सोच से परे है उसके बारे में क्या लिखू . उसके बारे में शब्द कहा से जोडू .
"वो शब्द कहा से लाऊ
तेरा गुणगान जिनसे कराऊ
मैं तो खुद हू माया के अधीन
तेरा पार कैसे पाऊ
"
ये बात मैं भी कई बार सोचता हूँ की हम जब कुछ ठीक हो तो उसका क्रेडिट खुद लेते हैं और जब कुछ गलत हो तो भगवान को दोष देते हैं.
जवाब देंहटाएंजब उसकी प्रेरणा की बोछार होती हैं तो अपने में ही भिगो के रख देती हैं और हम कुछ भी चाहे करना चाहे मगर कही ना कही वो प्रेरणा ही साथ रहती हैं .
और रही बात उसकी प्रेरणा से विमुख होने की या उसको नजरअंदाज करने की तो मैं कभी भी ये नही मानता की उसकी प्रेरणा को कोई भी कभी भी इग्नोर कर सकता हैं .
जवाब देंहटाएंमेरे बस की बात नही हैं ये हां कई बार दिल करता हैं उससे विमुख होने का पर कही न कही से कुछ ऐसा हो ही जाता हैं जिसके बाद फिर सब ठीक हो जाता हैं .
और क्या कहू जी, शायद जो मैं ये लिख रहा हू ये भी उसकी कोई प्रेरणा ही हो .
संजीव राणा
@वंदना जी,@दिलीप भाई साहब-भूल सुधरवाने के लिए धन्यवाद है जी,अभी मै प्री-नर्सरी में दाखला पाना चाहता हूँ..समझो उसके टेस्ट की तय्यारी सी है ये....मै भी आपकी तरह ही सोचता हूँ,पता नहीं ये कैसी असमंजस सी पनप रही है....आपको नहीं लगता कुछ बाते हम सिर्फ मान सकते है....
जवाब देंहटाएंकुंवर जी,
@माधव जी,@गोदियाल जी-यही हाल मेरा भी है...इसीलिए तो आप सब के विचारों का सहारा ले रहा हूँ....
जवाब देंहटाएं@संजय भाई साहब,@अकेला जी-आपका बहुत-बहुत धन्यवाद है जी,
कुंवर जी,
@राणा साहब-आपने इतने अनमोल भाव यहाँ प्रकट लिए उसके लिए आपका आभारी हूँ जी मै....
जवाब देंहटाएंमै तो समझ ही नहीं पाता कि कब उसने प्रेरणा देदी.....सारा क्रेडिट अपना....
कुंवर जी,
ईश्वर की प्रेरणा को समझ पाना आसान नही ... मनुष्य अपने अहंकार में उसे देख ही नही पाता ...
जवाब देंहटाएंशास्त्रों में ब्रह्म से स्वरुप का बोध करते हुए कहा गया है ----- भोक्ता, भोग्य, प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत//
जवाब देंहटाएंभोक्ता- जीव, भोग्यं-प्रकृति और प्रेरितारं- ईश्वर.
इस शास्त्र वचन से सिद्ध होता है कि जीव ईश्वर का अंश है और ईश्वर जीव को सदा प्रेरित करता है.
ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुख राशी, मगर यही जीव माया के आवरण से ग्रसित हो कर ईश्वर कि प्रेरणा से दूर हटकर मनमानी पे उतारू हो जाता है और आवागमन में फंस जाता है ---- "बंध्यो कीर मरकट कि नाइ"
तो जो जीव माया के फंद में है वे ईश्वर कि प्रेरणा को नजरअंदाज करने का दुस्साहस कर बैठते है, क्योंकि हम बिचारे माया प्रेरित जीवों को पाता ही नहीं रह्पता कि हमारा असली स्वरुप क्या है और हमें किसकी प्रेरणा से क्या कर्म करना चहिये .
.शब्द का महत्व अगर नही होता तो हम विराट संसार को अपना भाव नही दे सकते थे. शब्द ब्रह्म है यह तो हमारी सामर्थ्य है कि हम अपने भावों को कितना अच्छी तरह से प्रकट कर पाते है . दोष शब्द का नहीं है सामर्थ्य का है. सम्पूर्ण जगत कि हलचल जी शक्ति के आधार पे क्रियान्वित होती है, उस शक्ति का स्रोत शब्द है .
@पता नहीं ये कैसी असमंजस सी पनप रही है
गीता में भगवान कहते है कि बिना श्रद्धा के किया हुआ कर्म असफल हो जाता है. और श्रद्धा में अगर संदेह का घुन लग जाये तो श्रद्धा ही रस्ते कि रूकावट बन जाती है . इसलिए अपने सारे असमंजसों को दूर करके अपने नियत कर्म में प्रवृत होना चहिये. तभी हमारा विकास हो सकता है.
एक शिकारी ने एक साधु से पूछा कि आपने अभी इधर से एक घायल हिरण को भागते देखा है, तो वह साधु बोल, “मेरी आँखों ने देखा है पर वो बोल नहीं सकतीं, और मेरी ज़ुबान जिसे बोलना आता है, उसने तो कुछ देखा ही नहीं, इसलिए मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकता.”
जवाब देंहटाएंअपनी माशूक की तारीफ न कर पाने के बारे में भी एक शायर ने कहा था - “न ज़ुबाँ को दिखाई देता है, न निगाहों से बात होती है.”
एक व्यक्ति के विचार यदि शब्दों में हू ब हू ढल भी जाएँ तब भी वे शब्द दूसरे व्यक्ति के विचार बन जाएँ... 50-50 चांस है.
कुछ ऐसा ही प्रश्न जब अरस्तु के गुरु प्लूटो के सामने आया तब वे कला और कविता के कट्टर विरोधी हो गए. उनके अनुकरण के सिद्धांत को पढ़ना उनकी बेफकूफी पर हँसी भी आयेगी. हाँ दार्शनिक लोग ऐसे ही सवालों में उलझ कर अच्छे-भले जीवन को सार्थक [?] कर लेते हैं. और सार्थकता उनके जीवन की उपलब्धि कही जाती है. भारतीय दर्शन का सानिध्य लें या अमित जी से चेटिंग करें घंटे-दो घंटे. या फिर ये सोचें कि भाषा केवल शब्दों से व्यक्त नहीं होती वह तरह-तरह के संकेतों, निरर्थक ध्वनियों [क्लिक ध्वनियों] और कार्यों से भी व्यक्त की जा सकती है.
जवाब देंहटाएंparmatma kabhi koi prerna nahi deta ...sab insaani baatein hai jinhe pramatma ka sandesh bata jag me pesh kar diya jata hai
जवाब देंहटाएंमेरा यह मानना है मनुष्य ईश्वर की सहमति के बिना कुछ भी करने में असमर्थ है, चाहे वह परमेश्वर की दी हुई प्रेरणा को अस्वीकृत अथवा औचित्यहीन घोषित करना ही क्यों न हो. हाँ यह बात अवश्य है की उसने किसी भी कार्य को करने का निर्णय लेने का अधिकार हमें अवश्य ही दिया है. और हमारे निर्णय के आधार पर ही हमारे कर्म तय होते हैं.
जवाब देंहटाएंविषय विवाद से परे ।
जवाब देंहटाएंसवाल मुश्किल है पर ये तो तय है की उस प्रभु की मर्जी के बिना कुछ होता नहीं है पर इसका ये मतलब भी नहीं की हम हाथ पे हाथ धार कर बैठ जाएँ
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