हर रोज की तरह आज भी अपना ब्लॉग खोलने के बाद सबसे पहले अमित भाई साहब... को पढ़ा!अब जो ख्याल मन आये वो आपके समक्ष है!
माँ-बाप का ऋण एक दिन में चुकता करने की ये पश्चिमी सोच यहाँ भी अपने पैर पसारने काफी हद तक सफल होती दिखाई दे रही है!ये दुर्भाग्य ही तो है!अरे भगवान् का सबसे शुद्धतम रूप जो प्रत्यक्ष हमारे पास है वो माँ-बाप ही तो है!समस्त जीवन उनको देने पर भी हम उनका ऋण नहीं उतार सकते तो साल में एक दिन उनके नाम पर मस्ती करने से क्या ऐसा हो जाएगा?मुझे तो ब्लॉग खोलने के बाद ही पता लगा कि कल मदर्स डे था! लेकिन नहीं पता चला कल,इसके लिए मन कोई ग्लानी नहीं थी!क्योकि बीते कल में भी मेरे मन जो भावनाए थी मेरे माँ-बाप के प्रति वो वैसी ही थी जैसे बीते हुए हर एक कल में थी!
पश्चिमी समाज में ये सही हो होता होगा या हो सकता है!वहा की जीवन शैली ऐसी हो चुकी है की माँ-बाप जैसी चीज़ वहा याद नहीं रहती होगी बच्चो के!ऐसे में एक-आध दिन बच्चे मस्ती तो हर रोज वाली करे पर वो उस दिन अपने माँ-बाप के नाम पर करे तो उनके तड़पते माँ-बाप की तरसती आत्मा को ये ही सुख देने वाला लगता होगा!तो वहा तो उचित हो सकता है,लेकिन अपने यहाँ......!
अपने यहाँ बच्चे अभी इतने नहीं गिरे है!वो बस देखा-देखी ये सब कर रहे है!इसका सबसे सटीक और प्रत्यक्ष उदाहरण आप सब लोग है!क्यों क्या नहीं हो...........
गूगल पर माँ लिख कर खोजा तो चित्र के साथ ये कविता भी मिली!सोचा इसे भी शामिल कर लूं!पढ़ कर इसने मुझे सोचने पर विवश किया था,शायद आपको भी कर दे!
जय हिंद,जय श्रीराम!
कुंवर जी,
बिलकुल थक कहा आपने कुंवर जी
जवाब देंहटाएंये सब पश्चिमी सभ्यता में होता हैं.
sahi kaha aapne
जवाब देंहटाएंदिनों की महिमा भी अजीब है..साल भर में हम नौ दिन नवरात्र में ही माँ की आराधना जोड़ते हैं, फिर इस मदर्स डे पर इतना हल्ला क्यों. यदि हमने पश्चिम से कुछ सीखा है तो उन्होंने भी हमसे बहुत कुछ सीखा है. योग भारत की ही देन है, पर आज हर बहुराष्ट्रीय कंपनी इसे अपने अधिकारीयों के लिए अनिवार्य मानती है. हम अपने ही देश भारत में हिंदी दिवस मानते हैं, यह तो पश्चिम से नहीं आया. यह तो हमारी ही देन है. हर चीज पर पश्चिम को कोसना कोई हल नहीं है.
जवाब देंहटाएं@के.के. जी -आपका स्वागत है जी!सही कहा आपने ये दिनों की महिमा भी अजीब है!नवरात्रों के सन्दर्भ में मै कुछ नहीं कह सकता जी,वो थोडा धार्मिक मामला है जिसमे अपना हाथ काफी तंग है!रही बात "इस मदर्स डे" की तो भाई साहब ये केवल इस बार नहीं है शायद,और केवल इसी लिए नहीं है!वो तो समय मम्मी-दिन का है सो उसी हिसाब से लिखा जा रहा है!वलेंटाइन डे,रोस डे आदि-आदि का भी विरोध होता आया है!लेकिन जब वो आयेंगे तो तभी तो होगा उनका विरोध!आपकी हिंदी-दिवस वाली बात से भी सहमत हूँ!पर मै पश्चिम को कोस नहीं रहा हूँ जी!मै बस इतना कह रहा हूँ कि इस प्रकार कि चीजे उधर ही ठीक लगती होगी,उनकी जीवन शैली के हिसाब से,अपने यहाँ नहीं!
जवाब देंहटाएंऔर जो हो रहा है वो देखा-देखी है,कोई संस्कृति नहीं बदल गयी है अपनी,संस्कार नहीं बदल गए है अपने!और इसका सबसे अच्छा उदाहरण तो मै आप जैसे विद्वानों को बता रहा हूँ और आपसे अपने ठीक होने कि बात पूछ रहा हूँ!बताइये क्या मै गलत हूँ.....
कुंवर जी,
@पूजा जी व् राणा साहब -आपके सहयोग के लिए धन्यवाद है जी!
जवाब देंहटाएंकुंवर जी,
कुंवर जी, बिलकुल सही है प्यार एक दिन, माँ एक दिन, पिता एक दिन सारी भावनाए एक दिनी हो गयी है, यह उनके लिए ठीक हो सकती है जो अलग अलग रहते है. पर जब हम भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में बात करे तो जब सारा आधार ही आपसी भावनाओं पे टिका है तो, ये भावनाए सिर्फ एक दिन की महुताज़ क्यों कर बनती जा रही है, सोचना तो हमें ही पड़ेगा ना ..................
जवाब देंहटाएंamit ji ki tippani ko meri tippani samjhi jaye
जवाब देंहटाएं@मिथिलेश भाई-आपका स्वागत है जी!आपका धन्यवाद है जी पधारने के लिए!
जवाब देंहटाएं@अमित भाई साहब-सोचना तो पड़ेगा पर क्या?कैसे उस सोचे पर अमल हो?कैसे ये बात उन तक पहुंचे जो भरमाये हुए है या अपने आप को आधुनिक बताने पर दिखाने पर तुले हुए है?
कुंवर जी,
हम आपसे सहमत हैं पर बौद्धिक गुलाम हिन्दूओं को कौन समझाये व क?से समझाये इन्हें तो इन्हें तो वही करना है जो मैकाले कहता है
जवाब देंहटाएंधीरे धीरे अपने देश में भी ये सभ्यता पैर पसार रही है .........
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लेख...
जवाब देंहटाएंमाना कि अभी देखा देखि ही कर रहे हैं....पर आदत में बदलते कितनी देर लगेगी?
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति
aapke protsahan ke liye shukriya....aapka hausla hi prerna deta hain.....ham aapke vicharo se sahmat hain......Maa ke liye ek din koi kaise mukarar kar sakta hain
जवाब देंहटाएं@सुनील जी-हम से हर एक को ये शुरुआत करनी है जी!हम आप के साथ है!
जवाब देंहटाएं@नासवा जी, @संगीता जी- तो दिख ही रहा है!लेकिन हार मानना भी तो सही नहीं लगता!
@फिरदौस जी, @प्रिय जी-आपके सहयोग से मन नए उत्साह का संचार हो रहा है जी!
आप सभी का हार्दिक धन्यवाद है जी!
कुंवर जी,
माना कि मेरी दिलरुबा मेरी जान है !
जवाब देंहटाएंपर इससे पहले मेरी माँ से मेरा पहचान है !!
अपनी मोहब्बत के लिए हद से भी गजर सकता हुँ मैँ !
पर माँ के लिये तो अपनी जान भी लुटा सकता हुँ मैँ !!
माना कि ईष्क एक समुन्द्र - सी गहराई है !
पर माँ के कदमों मेँ तो जन्नत हमने पायी है !!
ईष्क मेँ हर पल डुब जाने का दिल करता है !
पर माँ के आर्शिवाद के बिना कोइ काम कहाँ बनता है !!
ईष्क मेँ कभी भी धोखा सकते हैँ !
पर माँ से तो बस प्यार ही पा सकते हैँ !!
माना कि मेरी दिलरुबा मेरी जान है !
जवाब देंहटाएंपर इससे पहले मेरी माँ से मेरा पहचान है !!
अपनी मोहब्बत के लिए हद से भी गजर सकता हुँ मैँ !
पर माँ के लिये तो अपनी जान भी लुटा सकता हुँ मैँ !!
माना कि ईष्क एक समुन्द्र - सी गहराई है !
पर माँ के कदमों मेँ तो जन्नत हमने पायी है !!
ईष्क मेँ हर पल डुब जाने का दिल करता है !
पर माँ के आर्शिवाद के बिना कोइ काम कहाँ बनता है !!
ईष्क मेँ कभी भी धोखा सकते हैँ !
पर माँ से तो बस प्यार ही पा सकते हैँ !!