सोमवार, 17 मई 2010

ये शब्द मेरे साथ आजकल कबड्डी खेल रहे है!-(कुंवर जी),(कविता)

ये शब्द
मेरे साथ
आजकल कबड्डी खेल रहे है!
मै सोचता हूँ
इस बार तो
धर-दबोचुन्गा,
तैयार भी हो जाता हूँ
पूरी तरह!
पर पता ही नहीं चलता
कब-कैसे वो
बोनस भी ले जाते है!
और मै खड़ा देखता रह जाता हूँ!

अब मै कसता हूँ लंगोट
एक बार फिर,
हाथो को लगाता हूँ
मिट्टी भरपूर,
मुट्ठियाँ भीन्च,
त्योरिया खींच,
घूरता हूँ मैं शब्दों को....

खिलखिला कर हँसते है
वो मुझ पर....
कहते है
हम थक गए,
अभी खेल ख़त्म....
और मै खड़ा देखता रह जाता हूँ!

जय हिन्द,जय श्रीराम,
कुंवर जी,

9 टिप्‍पणियां:

  1. शब्दों की कब्बड्डी .... क्या कल्पना है कुंवर जी ... बहुत खूब .... ये शब्द उलझा देते हैं कितना ...

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  3. @नासवा जी-जी बिलकुल बहुत चक्कर दे रहे आज-कल ये शब्द मुझे!पता नहीं क्या चाहते है?

    @संजय जी-धन्यवाद है जी इस सहयोग के लिए!

    @राणा साहब- ये वो ही शब्द जो कभी हमसे सीखा करते थे आकार लेना,आजकल हमें आकार देने में लगे है...

    कुंवर जी,

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  4. जिन्दगी एक कबडी ही तो है पर थकना मना है जब तक गद्दारों का समूल नास नहीं हो जाता तब तक

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  5. ye shabd ka arth to smjhaiye smgh me nahi aaya kya bhav hai is kavita me

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  6. khelta tu kabbadi hai, lekin halat cricket walon jaisi hai

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