किसी की भी राहों से कांटे मै नहीं छाँट सकता हूँ,
पता नहीं कैसी मिट्टी है मेरी!
जो खुद को जैसा भी समझता है वैसा भी हूँ मै,
पता नहीं कैसी मिट्टी है मेरी!
ऐसे तो हाड़-मांस कि ही हूँ मै,
पर नहीं किसी के विश्वाश का हूँ मै,पता नहीं कैसी मिट्टी है मेरी!
गीली सी मिट्टी मानो,कुछ भी घड़ लो,
कोरा कागज़,जो मर्जी लिखो और पढ़ लो,कुछ-कुछ ऐसी मिट्टी है मेरी!
हर-दीप जल कर बुझ जाता है,
अँधेरा पहले भी था,वही बाद में भी नजर आता है,कुछ-कुछ ऐसी मिट्टी है मेरी!
पर शायद मिट्टी भी मेरी कहाँ है?
धुल सी,अभी यहाँ,अभी न जाने कहाँ है?कुछ-कुछ ऐसी मिट्टी है मेरी!
मिट्टी मेरी....
न जाने कैसी है,है! पर न होने जैसी है!
कुंवर जी,
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