साँस भला कब तक रोकता समय,
सुबह तो होनी ही थी,
पर ये क्या?
दिन तो निकला पर सूरज नहीं!
सब कुछ धुंधला-धुंधला
उस सर्द सुबह में,
तारे बेचारे
थक हार कर या
सुबह की लाज बचाने की खातिर
चले गए थे!
पक्षियों का आलस ज्यों का रयों था,
या तो वो घबराए हुए गुमसुम थे!
कालिया जो ख्वाब देख रही थी
खिलने के,
खुद पर तितलियों के मंडराने के,
जगी जरुर,पर मुस्कुराई नहीं,
तितलियाँ भी कहा आई थी,
क्योकि...
दिन तो निकला पर सूरज नहीं!
पत्ते उदास हो चले थे,
हौसले तोड़ दिए थे टहनियों ने भी,
और कालिया तो रो ही पड़ी
जब देखा उनके चारो और तितलियों के पंख
पड़े है बिखरे हुए!
उस पर न धुप का सहारा मिला,
तो यूँ तदपि कालिया
जैसे किसी ने सांस आने के सभी दर मूँद दिए हो...
तितलियों के बिखरे पंखो के बीच
लाचार कलियों को दम तोड़ते देख
झटके से; एक सांस खींच,
मुट्ठिया भींच आँखे खुली...
तो देखा
तितलियाँ तो उड़ रही थी,
क्योकि कालिया फूल बन खिलखिला रही थी!
पंछी भी खुले आसमान में
पर फैला चहचहा रहे थे,
क्योकि सूरज तो चमक रहा था क्षितिज पर,
और तारे कहीं भी न थे,
न उनकी जरुरत भी थी!
और बूँद ओस की,
आँख की पुतली से चल
समां गयी आँख की कौर में,
जो अब भी
पलके झपकाने से भी दर रही थी
कही फिर कोई सपना न दिख जाए,
पर
आँखे अब और भी चमक रही थी!
जय हिन्द,जय श्रीराम
कुँवर जी,